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आनन्द प्रवचन : भाग १
भोले-भोले बच्चों में प्रारंम्भ से ही बड़ों के समक्ष मस्तक नवाने की आदत डाल सकते हैं। यह किस प्रकार ? चलिये यह भी मं ही बता दूँ। बात यह है कि बालक कहा हुआ करने की बजाय देखा हुआ जल्दी करते हैं। अगर वे अपने माता-पिता को अर्थात् आप लोगोंको अपने से बड़ों के सम्मुख मस्तक झुकाते हुए देखें तो निश्चय ही आपको बिना कहे अपना मस्तक आपके चरणों में रखने लगेंगे तथा बाल्यावस्था में पड़े हुए इस उत्तम संस्कार को अपने 1 जीवन से नहीं निकालेंगे।
शास्त्रों में हम देखते हैं कि बड़े-बड़े राजा भी अपने माता-पिता के दर्शन नियमित रूप से किया करते थे। तथा प्रातः काल दर्शन करने के उपरान्त ही अन्य कार्य प्रारम्भ करते थे। माता का महत्त्व बताते हुए कहा भी है :
"शिशोः शुश्रूषणाच्छक्तिनिर्माता स्यान् माननाच्च सा । "
-स्कन्दपुराण
शिशु की शुश्रूषा करने से माता को शक्ति, और सदा सन्मान देने के कारण उसे माता कहते हैं।
वास्तव में माता के बलिदानों का बल्ला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता, चाहे वह भूमण्डल का स्वामी ही क्यों न । माँ के ममत्व की एक बूँद भी अमृत के सागर से अधिक मीठी होती है।
एक पाश्चात्य विद्वान 'कोलरिज' ने भी अपनी कविता में लिखा है :
""A mother is a mother still, trhe holist thing alive.'
-माता माता ही है, जो जीवित वस्तुओं में सबसे पवित्र है।
बन्धुओ, माता के समान पिता की सेवा का भी बड़ा भारी महत्त्व बताते हुए रामायण में कहा गया है :
न सत्यं दानमानी वा न यज्ञाश्वामदरिणा ।
थथा बलकरा : सीते। तथा सेवा पितुर्हिता ।।
वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड
हे सीता ! पिता की सेवा करना जिस प्रकार कल्याणकारी माना गया है, वैसा प्रबल साधन न सत्य है, न दान-सन्मान है और न प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ ही हैं।
कहने का अभिप्राय यही है कि माता-पिता की सेवा, भक्ति तथा सन्मान करने से बढ़कर अन्य कोई भी धर्म या शुभःकृत्य नहीं है। इसीलिये वासुदेव के अवतार पुरुषोत्तम कृष्ण अपनी माता को नमस्कार करते थे ऐसा अन्तगडसूत्र में आता है । ज्ञातासूत्र तथा निरियावलिका में भी 1 मूल पाठ है कि मंत्री अभयकुमार