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आनन्द प्रवचन : भाग १ है तथा प्रसन्न होता है किन्तु अपने उन दोषों को नहीं देखता जिनकी कोई गिनती ही नहीं है। यानी न जिनकी आदि है और न अन्त है।
इसीलिये कवि श्री तिलोकऋषि जी महाराज का कथन है कि तू ऐसा उलटा काम कर ही मत। दूसरे के अवगुणों को देख-देखकर अपने अवगुणों में वृद्धि मत कर।
एक गाय है। वह घास खाती है तथा कभी-कभी मलिन पदार्थ भी ग्रहण कर लेती है। किन्तु उससे तुझे क्या मतलब है? गाय क्या खाती है, और क्या नहीं इसकी चिन्ता छोड़कर तुझे तो केवल उसका दूध, दही, मक्खन और घी आदि सार पदार्थ ही ग्रहण करना है।
अन्त में कहा गया है - 'अरे अनानी! अगर तुझे दोष ही देखने हैं तो औरों के क्यों देखता है? अपने ही क्यों नहीं देखता! औरों के दोष देखने से आखिर तुझे क्या लाभ होगा? अपने स्वयं के देख लेगा तो कुछ आत्म-सुधार तो कर सकेगा! इसलिये उचित यही है कि अपने आप में झाँक, आत्मनिरीक्षण कर। जिन्होंने ऐसा किया है, उनका कहना भी है :
बुरा जो देखन में चला, बुरा न दीखा कोय।
जो घट सोधा आपना, मो सा बुरा न कोय।। वस्तुत: सच्चे महापुरुष अपना ही दोष-दर्शन करते हैं। गनीमत है कहते हैं कि सन्त उसमान हैरी किसी रास्ते से जा रहे थे। कुछ दूर चलने के बाद एक मकान की खिड़की से किसी ने ना देखे ही थाली भर राख नीचे फेंक दी।
राख हैरी के मस्तक पर गिरी। पर उन्होंने बिना इधर-उधर देखे हुए हाथों से राख झड़ाई और हाथ जोड़कर ऊपर की ओर देखते हुए बोले
"दयामय प्रभु! तुझे लाख-लाख धन्यवाद!" यह सब देखकर एक व्यक्ति ने जो कि उनर्स कुछ दूर पर ही खड़ा था, पूछा -- "महात्मन् ! इसमें भगवान को धन्यवाद देने की क्या बात है?" उसमान हैरी मुस्कराते हुए बोले - "भाई, मैं तो आग में जलाये जाने लायक हूँ। लेकिन उस मेहरवान ईश्वर ने मुझे राख से ही निघटा दिया।"
सचे महापुरुष ऐसे ही होते हैं। आज के व्यक्तियों में इतनी सहन-शीलता तथा ईश्वर के प्रति ऐसा अटूट विश्वास कहाँ पाया जाता है? आप लोगों में से किसी के साथ अगर ऐसी घटना घट जाती को क्या होता जानते हैं? उस गली में ही महाभारत खड़ा हो जाता। तथा गाली-गलौज की बौछार होने लगती। उस