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________________ • दुर्गति-नाशक दान [२६२] लगा कर बचा-खुचा धन लेना नहीं छोड़ती' अगर एक करोड़पति मर गया तो अपना टैक्स लिये बिना वह लाश को भी उठाने नहीं ईती। इस प्रकार धर्म-कार्य में खर्च न करने पर प्रथम तो राजा या सरकार ही धन छीनने का प्रयत्ल करती है पर अगर उससे बच जाय तो मौका पाकर लक्ष्मी का दूसरा पुत्र अग्नि उसे स्वाहा का देता है। आए दिन सुनने को, अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक दुकान में, अमुक फैक्टरी में या अमुक कारखाने में आग लग गई और इतना नुकसना हुआ। अब तस्कर की बारी आती है। चारों की आँख लोगों के धन पर ही टिकी रहती है। अगर धर्म, राजा और ओने से वह बचा रहा तो दाँव लगते ही चोर उसका सफाया कर देते हैं तथा लक्ष्मी का एक पुत्र होने के नाते वे भी अपना हिस्सा वसूल करते हैं। सारांश कहने का यही है कि अगर व्यक्ति ने अपने धन को शुभ-कार्यों में लगाकर धर्म को संतुष्ट नहीं किया तो 1 राजा, अग्नि और चोर ये तीनों भाई नाराज होकर किसी न किसी प्रकार उसे लूटने न प्रयत्न करेंगे। इसलिये सर्वश्रेष्ठ उपाय तो यही है कि उसे दानादि धर्म-कृत्यों में लगाकर पुण्य-फल के रूप में संचित किया जाय। संत कबीर भी यही बात बहुत पहले कह गए हैं : जो जल बाद नाव में, घर में बाढ़े दाम। दोऊ हाथ उलीचिये, की सयानो काम। महापुरुषों की बात चाहे वह कितनी भी सरल और सीधी भाषा में कही गई हो, मानव के लिये अत्यन्त शिक्षाप्रद और हितकारी होती है। कबीर का कथन है . अगर नाव में जल किसी सुराख से अन्दर आकर अधिक मात्रा में इकट्ठा हो जाय तो बिना विलम्ब किये उसे दोनों अथों से उलीच देना चाहिए ताकि नाव में बैठने वालों की रक्षा हो सके। और इसी प्रकार अगर घर में प्रचुछ धन इकट्ठा हो जाय तो फौरन उसे सत्कार्यों में खर्च करना प्रारम्भ कर देना चाहिये ताकि धन के कारण जन्म लेने वाले दुर्गुण पनप न पाएँ और आत्मिक गुणों की रक्षा हो सके। अगर ऐसा नहीं किया जाएगा अथात् द्रव्य को शुभ-कार्य में न लगाकर मनुष्य उसके संचय में ही लगा रहेगा तो वह धन से कहीं का न रखेगा। जीवन की सबसे बड़ी भूल अधिकांश व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि जब तक हाथ-पैर चलते हैं, तब तक धन इकठ्ठा कर लें, उसके पश्चात् जब वृध्दावस्था आएगी, इसका मोह छोड़कर
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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