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________________ अनमोल सांसें... यह सब सम्यक् ज्ञान की बदौलत ही हो सकता है। अतः कहा गया है। संसार सागरं घोरं, तर्तुमिच्छति यो का: । ज्ञान नावं समासाद्य, पारं याति सुन सः ॥ —जो मनुष्य इस घोर संसार सागर को पार करना चाहते हैं, उन्हें ज्ञान रूपी नौका का सहारा लेना चाहिए। क्योंकि एकमात्र ज्ञान ही सुखपूर्वक मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। [१६४] संक्षेप में सम्यक्ज्ञान ही कालांतर में मनुष्य को संसार मुक्त कराने वाला साधन है। ज्ञान प्राप्त किये बिना जन्म मरण की वेदनाओं से कभी नहीं बचा जा सकता। भगवद् गीता में भी कहा है--- "नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।" संसार में ज्ञान के समान पवित्र पदार्थ और दूसरा कोई नहीं है। अतः प्रत्येक मुमुक्षु प्राणी को ज्ञानोपासना करनी चाहिये। ज्ञानप्राप्ति करने पर ही वह अपनी अन्य क्रियाएँ सम्यक् रूप से संम्पन्न कर सकता है। 'दशवैकालिक सूत्र' में यही कहा है : "पढमं नाणं तओ या । " • पहले ज्ञान प्राप्त करो, तत्पश्चात् आचरण में उतारो। बन्धुओ, एक बात और ध्यान में रहने की है कि ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता। आत्मा में उसका अक्षय कोष किमान रहता है। केवल उसे प्रकाश में लाने की तथा अभिव्यक्त करने की आवश्यकता होती है जिसमें हमारे शास्त्र एवं गुरु सहायक बनते हैं। ज्ञान का उपादान कारण व्यक्ति की आत्मा स्वयं ही है। अगर उसमें ऐसी शक्ति न होती तो लाख निमित्त मिलने पर भी उसमें ज्ञान का उदय नहीं हो सकता। जिस प्रकार पत्थर अथवा काष्ठ आदि जड़ पदार्थों में अनन्त काल तक प्रयत्न करने पर भी ज्ञान का दीप नहीं जलाया जा सकता। आत्मा स्वयं ही ज्ञानमय है तथा अपरिमित चेतना की अधिकारिणी है। इसी चेतन को सम्बोधित करके एक कवि के शब्दों में 'सुमति' कहती है : चेतन धरके अब ध्यान, जरा पढले तु ज्ञान, जिससे बने इन्साफ, कहे सुमति सखि ॥। — संस्कृत में 'चिति संज्ञाने एक धातु है जिसका अर्थ है सम्यक् प्रकार से जानने व समझने वाला चेतन। इसे ही सुमंत्र ने कहा है - हे चेतन ! अज्ञान दशा में तो अनन्त काल बीत गया। चौरासी लक्ष योनियों में भटकते-भटकते बडी कठिनाई से यह मनुष्य शरीर मिला है। इस बीच में जीव को कितना कष्ट सहन
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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