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________________ • [१२१] आनन्द प्रवचन : भाग १ तो फिर देरी किस बात की? आ जाओ, और बनो साधु! पर क्या संभव है ऐसा? आज अगर जोर देकर कहूँ कि सबको साधु बनना है तो शायद कल यहाँ पर एक भी श्रोता दिखाई नहीं देगा। हम संत ही अले होंगे। संसार असार है ___एक संत के पास चार व्यक्ति आए संत ने उनसे अपने-अपने अनुभवों के विषय में पूछा - एक व्यक्ति बोला - "महाराज! संसार का प्रत्येक व्यक्ति मक्कार है। और किसी न किसी तरह से अपना स्वार्थ-सिद्ध करने में ही लगा हुआ है।" दूसरा बोला - "क्या बताऊँ! आच दुनियाँ में इतनी अप्रामाणिकता बढ़ गयी है कि किसी का भी विश्वास नहीं किया जा सकता।" अब तीसरे का नम्बर आया। उसने कहा - "संसार में सब संबंधी मतलब के सगे हैं। जहाँ स्वार्थ सिद्ध होने की संभावना नहीं होती, कोई बात भी नहीं पूछता।" तीसरे की बात समाप्त होते ही चौथा बोल पड़ा - "भगवन् ! इस संसार तीसरी में सुख-शांति तो कहीं है ही नहीं, चारों लफ दुख, दरिद्रता और चिन्ताओं का ही साम्राज्य है।" संत ने चारों व्यक्तियों की बाते शो से सुनी और फिर कहा - "अगर संसार ऐसा है तो भाई, तुम सब संन्यास है। क्यों नहीं ले लेते हो? ऐसी दुनियाँ में रहने से क्या है? ......" पर संत आ क्या कहते हैं यह सुनने के लिए चारों में से एक भी व्यक्ति वहाँ नहीं था। तो बंधुओ! आप सबका यही हान है। आप संसार को दुखमय और साधुजीवन को सुखमय कहते हो, किन्तु अमर इस सुखमय जीवन को अपनाने का आपसे कह दिया जाय तो बगले झाँकने लग जाते हो। साधु-जीवन वास्तव में तो लोहे के चने चबाने जैसा है, यह ऐसी लसौटी है, जिस पर साधक के संयम, साहस, धैर्य, सहनशीलता, शांति और संतोष आदि की सच्ची परख होती है। अधिक क्या कहा जाय? संत जान संयम का मूर्त रूप है। मन और इंद्रियों पर संयम रखने के साथ ही साधु के 1 अपने हाथों तथा पैरों पर भी संयम रखना पड़ता है। शास्त्रों में भी कहा है - 'उत्थसंजए, पायसंजए'। संत जीवन की प्रत्येक क्रिया संयम को लक्ष्य में रखकर ही की जाती है। वे जिस प्रकार त्याग, तपस्या, साधना आदि संयम को लक्ष्य में रखकर करते हैं, उसी प्रकार उनका आहार करना, बोलना, मौन रखना और चक्ना-फिरना भी संयम की रक्षा करते हुए ही किया जाता है। और यह सब साधाष्ण मनुष्यों के बल-बूते का काम नहीं
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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