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________________ • जाणो पेले रे पार [११४] बीच में क्यों पड़ी है?" "रास्ता बन जाने पर तुड़वा दिया जाएगा।" उत्तर मिला। श्री समर्थ ने कहा - "नहीं, इस काम को भी अभी करवा लो! कोई भी कार्य जो रह जाता है फिर हो ही नहीं पाता।" तुरन्त ही कारीगर बुलाए गये पर शिला तोड़ी• जाने लगी। उसके टूटने पर सबने देखा कि शिला के अन्दर पानी से भरा हुआ एक गट्टा निकला जिसमें एक जीवित मेंढक बैठा हुआ था। उसे देखकर सदगुरु बोले - "मह शिवा! धन्य हो तुम! इस शिला में पानी रखकर तुमने इस मेंढ़क के पालन का भी प्रबन्ध कर रखा है।" । गुरु के शब्द सुनते ही शिवाजी को अपने अहंकार का मान हो गया। उन्होंने उसी क्षण गुरुजी के चरणों में मस्तक झुकाकर अपने दोष के लिए क्षमा याचना की। कहने का अभिप्राय यही है कि मानद गर्व किस बात का करता है? धन, वैभव, सौंदर्य, शक्ति आदि सब क्या उसवेत साथ सदा रहने वाले हैं? नहीं, केवल पुण्योदय है तब तक ही तो। फिर इन अस्थायी चीजों का अहंकार किसलिए? कहा भी गया है - न मृत्यूनिहतो-जीव! गोत्रम् कुर्वन् न लजसे? --पार्श्वनाथ चरित्र अरे आत्मन्! मृत्यु का विनाश नहीं हुआ, ऐसी स्थिति में परलोक का विचार नहीं करके अहंकार करते हुए तुझे लज्जा का अनुभव क्यों नहीं होता। कषाय इन्द्रियों के विषय मी प्रमाद हैं। मेषय-चिंतन मनुष्य के पतन और विनाश का कारण है। जब तक मनुष्य केवल लिश्यों का ही स्मरण करता है. तब तक उसके लिए आत्म-उत्थान की आशा करना व्यर्थ है। यदि वह अपने जीवन को पुण्यमय, शांतिमय और उत्तम बनाना चाता है तो उसे विषय-विकार का त्याग करना चाहिए जबतक हृदय में विषय विकार रूपी अशुद्धता है, मानव आत्म कल्याण का पथ ग्रहण नहीं कर सकता। विषयों में तीव्र आकर्षण होता है जो व्यक्ति को अपनी ओर खींचकर पतन की ओर उन्मुख कर देता है। इंद्रिय-सुख भोगासक्त व्यक्ति को सये सुख ही प्रतीत होते हैं। जबकी वास्तविकता यह है कि वे सुख नहीं केवल सुखाभास ही हैं। मनुष्य की चित्तवृत्ति जब तक उनमें रमण करती रहती है, वह शुद्धता की ओर नहीं बढ़ सकती। आत्मस्वरूप का चिंतन हीं कर सकती तथा आत्मा को संसार
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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