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पीकर इस चाँदनी में ही चल देना ठीक रहेगा । कल से घूमने घामने के पश्चात् यही अन्दाज़ हुआ है कि यहाँ अधिक समय तक रुकना उचित नहीं । आध एक मील पर उनकी चौकियाँ हैं । इसलिए जाओ, उन्हें बुला ही लाओ ।"
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भिभिराम के चले जाने के बाद गोसाईं ने चन्द्रमा की ओर एक बार फिर निहारा । डिमि भी सिगरेट फेंककर उसी ओर देखने लगी । बहुत देर तक किसी मुख से कोई बात नहीं निकली। उधर गाय जोर-जोर से रंभा रही थी। उसकी भाट में झींगुरों की झंकार भी लुप्त हो गयी थी । बीच-बीच में हवा के झोंकों के साथ जंगल में बाघ के होने की दुर्गन्ध भी नाक में पड़ रही थी । आकाश टिड्डे के पंख जैसा फैला था हल्का पीताभ और कुछ-कुछ लालिमा लिये । और, चाँद था मानो टिड्डे का मुँह । दूर दिशाओं में जंगल क्षितिज के साथ सटा हुआ प्रतीत हो रहा था जिससे नीले और काले रंग की एक पट्टी बनती हुई दिखाई पड़ रही थी । गोसाइन को वैसी ही पट्टी अच्छी लगती है- परस्पर मिले दो मनोभावों की तरह एक मन था सुन्दर और सत्य, किन्तु दूसरा कुछ-कुछ मैला ।
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fsfer को तारे नहीं दिखाई दे रहे थे । मानो वे नाच नाचकर डेका या फिर टेरांग के घर सो चुके हैं। ओझाइन तब भी नाचती ही जा रही है । एक बार वह 'हाई' की तरह रोती है तो दूसरी बार कपिली की तरह हँसती है । उसकी मेखला चमक रही है। कमर से 'वानकोक' खिसककर गिरने को हो गया है । 'हाई' की बातें याद आते ही उसे दुःख होने लगा। उसके गीत सुनते ही उसकी आँखों से आँसू ढुलक पड़ेंगे। कितना निष्ठुर राजा था वह ! वर और कन्या की मिली- मिलायी जोड़ी उसने तोड़ दी । वह स्वयं कन्या को ब्याह ले गया। उसके शोक में ही मरकर हाई आकाश में चला गया। जोड़ी बनती है दो प्रकार से । पहली जोड़ी है वह जिसमें लड़के-लककियाँ स्वयं अपने मन से चुनाव कर लेते हैं । दूसरे प्रकार की जोड़ी मिलाते हैं माता-पिता । इनमें किसे अच्छा कहा जाय ? यदि उसे अपनी जोड़ी मिलाने की छूट होती तो वह निश्चय ही धनपुर को वर लेती ! छिः ! मन में यह कैसी भावना आ रही है । यह भाव उसके मन को वैसे ही खाये जा रहा है जैसे कीड़े धान की पकी बालियों को कुतरकुतर कर खाते हैं ।
एकाएक वह सुभद्रा की बातें सोचने लगी । विधाता ने सुभद्रा की रचना भी एकदम उसी के समान कैसे कर दी ! क्या आदमी भी मिट्टी का घड़ा है कि एक के फूटते ही वैसा ही दूसरा मिल जाता है ! तब भी उसकी इच्छा हुई सुभद्रा को एक बार देखने की । उसे वह भाभी कहकर पुकारेगी। नहीं, उसे वह 'नें' यानी बहू कहेगी और धनपुर को 'चेकले' यानी देवर । डिलि से कहकर वह एक दिन सुभद्रा को देखने जायेगी। इस बार उसने गोसाईं की ओर देखकर कहा : "गोसाईंजी, आप सुभद्रा को पहचानते हैं न ?”
मृत्युंजय | 89