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बाद भी यदि जंगल से बाघ नहीं भागता है, तब उसे मारने की व्यवस्था की जाती है ।
ffsfa को अब भी वैसे ही एक आयोजन की धुंधली स्मृति है— एक बार मन्त्र द्वारा कील देने के बाद लोगों ने जंगल की एक ओर जाल तानकर दूसरी ओर से ढोल बजाकर खेदा करते हुए बाघ को फँसा लिया था। फिर उसे तीर भालों से गोद-गोदकर मार डाला था। जब वह जमीन पर गिर पड़ा तो 'उचेपि' ने खड़े हो उसके वंश का वर्णन किया था । ऐसा कहा जाता है कि पहले बाघ और मिकिर लोगों के पूर्वजों में मेल-जोल था, उनमें भाई-चारा था । किन्तु कालान्तर में लोग बाघ को छोड़कर चले आये । आजकल तो बन्दूक की एक गोली से ही बाघ मर जाता है । उसकी माँ कहा करती थी कि कभी भाले गाड़कर भी लोग बाघ को मारते थे । बाघ के आने-जानेवाले रास्ते पर भाले गाड़ दिये जाते थे । ठीक से लगने पर भाला बाघ के कलेजे और पीठ में घुस जाता था ।
- ये सब पुरानी बातें हैं । लेकिन आज चाँद देवता इतना क्यों नाच रहे हैं ! उनकी देह पर देवी आ गयी है क्या ? उसका मरद का कहना है कि छालजङ यानी चन्द्रमा के प्रसन्न मन से नाचने पर खेती अच्छी होती है-धान निर्विघ्न रूप से घर के बखार में आ जाता है । किन्तु आज तो कुछ और ही कारण है । रिचमा नृत्य करनेवाले तरुणों की नाई ही आज तारे भी ढोलकिये बन गये हैं । अरे, यहाँ तो कोई वंशी बजा रहा है ! कौन बजा रहा है यह ! मेरी देह भी नाच उठी है । भिभिराम ने सिगरेट का आख़िरी कश खींचा। फिर डिभि को सावधान करता हुआ बोला :
"ये लोग वहाँ कर क्या रहे थे ?"
"ये लोग दिन-भर इधर-उधर घूमते रहे।” डिमि ने मुसकराकर कहा : "दो व्यक्ति और हैं- दोनों नेपाली हैं। मैं नहीं जानती कि वे क्या करते हैं । फुसफुसाकर कुछ बातचीत करते रहते हैं । शायद साहबों को खदेड़ने की बातचीत । धनपुर से पूछने का समय भी तो नहीं मिला। रात भोजन के समय थोड़ी-सी
हुई थी। शायद यहाँ शिकार करने आये हैं । फिर इन सारी ख़बरों की मुझे ज़रूरत ही क्या ठहरी ! मैंने सिर्फ़ इतना ही पूछा कि वह ब्याह कब करेगा । उसने बताया कि सुभद्रा नाम की किसी लड़की से वह विवाह करनेवाला है । कैसी है वह लड़की ?"
भिभिराम का मुख म्लान पड़ गया । 'डिमि को सही ख़बर बतलाना उचित नहीं होगा' सोचकर वह चुप हो गया । छप्पर पर बैठा उल्लू तब भी बाधवाले जंगल की ओर एकटक देख रहा था । भिभिराम की इच्छा उसे उड़ा देने की हुई । उसने एक ढेला उठाया कि तभी गोसाईं ने आवाज़ लगायी :
"ढेला मत मारो भिभि । यह नियति नहीं, लक्ष्मी है— दुर्भाग्य नहीं, सोभाग्य
मृत्युंजय / 87