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पाँच
सन्ध्या का समय । चारों ओर ऊंची-ऊँची पहाड़ियाँ । पेड़-पौधों को ढांकती हुई उतर आयी एक विशाल पक्षी के डनों की तरह काली छाया।।
सामनेवाली पहाड़ी पर दूसरी ओर से आती हुई एक काली गाय पर गोसाईं की नज़र टिक गयी । गाय रंभा रही थी, जैसे उसका बछड़ा कहीं खो गया हो। धीरे-धीरे वह गोसाईं के पास आ पहुंची। गोसाईं धुंधले प्रकाश के बावजूद उसे पहचान गये। साथ ही उनका चिन्ता से बोझिल मन हलका हो गया। उसकी पीठ सहलाते हुए उन्होंने पूछा, "बछड़े को कहाँ छोड़ आयी ?"
गोसाईं का हाथ एक बार उसकी आँखों पर जा पड़ा। अँगुलियों के भीजते ही वे समझ गये कि इसका बछड़ा अब जीवित नहीं है। इसका नाक-मुंह आँसुओं से भीग गया है। ___ तभी हांफते हुए आहिना कोंवर कहीं से आ निकले । अँधेरे में वह एक भालू की तरह ही झूमते हुए आते दिखाई पड़े। उनके हाथ में एक टोकरी थी। "किस साहस से, हे कृष्ण, भीतर जाऊँ ?" घबड़ाहट का यह स्वर उनके मुंह से रुक-रुककर वैसे ही निकल रहा था जैसे चापाकल से पानी।
"क्यों ?" गोसाई ने विस्मित होते हुए पूछा।
"वनराज ! 'देखते नहीं कितनी उत्कट दुर्गन्ध फैल रही है ! दहाड़ भी सुनी है । हे कृष्ण, उसने दो गायें मार रखी हैं।"
आहिना आँगन में ही बैठ गया। उसने टोकरी में पड़े नाहर के बीज की ओर इशारा करते हुए कहा : ___"तो भी काम हो गया । हे कृष्ण, नाहर के बीज रास्ते में जलाने के लिए अच्छा होगा । हे कृष्ण, भिभिराम ने आम के झंखाड़ भी इकट्टे किये हैं। वह भी तो वनराज की तरह ही साहसी है । उसने एक मोटे झंखाड़ को काटकर ही दम लिया, हे कृष्ण ।" आहिना एक ही साँस में यह सब कह गया।
गोसाईंजी ने गाय का थन छुआ, “दूध पसीज रहा है।" आहिना ने भी गाय की ओर देखा । बोला : "दहेज में आपको यही गाय मिली थी न ? हे कृष्ण, यह यहां कैसे आ गयी?"