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________________ एक "वरों के छत्ते को छेड़ दें तो फिर उनसे अपने को बचा पाना कठिन हो जाता है।" बात भिभिराम ने कही। घुटनों तक खद्दर की धोती, खद्दर की ही आधी बांह की क़मीज़, पाँवों में काबुली चप्पल जिन्हें खरीदने के बाद पॉलिश ने छुआ ही नहीं, धुंघराले बाल, लम्बी नाक, और लम्बोतरा साँवला चेहरा : एक सहज शान्ति की आभा से युक्त। ___ साथ में थे धनपुर लस्कर और माणिक बॅरा। तीनों जन कामपुर से रेल द्वारा जागीरोड उतरे और नाव से कपिली को पार करके पगडण्डी पकड़े हुए तेज़ पांवों देपारा की ओर जा रहे थे । आगे था पचीसेक मील का रास्ता। बीच में एक मौज़ा पड़ता : मनहा। तीनों जन का चित अब उद्वेगमुक्त हो आया था। क्योंकि मनहा से आगे का समचा रास्ता घने जंगल से होकर जाता था। रास्ते के दायें-बायें पहाड़ियाँ थीं या घनी वनानियाँ। कहीं-कहीं दलदली चप्पे मिलते, नहीं तो खुले खेत होते । दूर दाहिने झलझल करता ब्रह्मपुत्र की बालू का प्रसार, उन्मुक्त पसरा हुआ बालूचर। - धनपुर लस्कर ! तरुणाई की साकार मूर्ति । बड़े चकोतरे जैसा गोल-मटोल चेहरा, काली घनी मूंछों की रेख, बाल पीछे को कंघी किये हुए, लम्बी-बलिष्ठ देह, बड़ी-बड़ी आँखें : पनी वेधक दृष्टि । जो इसे देखता प्रभावित हुए बिना न रहता । लगता जैसे आँखों से अग्नि-शिखाएँ फूटी आती हों। बहुत चेष्टाएँ करके भी हाई-स्कूल की दहलीज़ पार न कर सका। बीड़ी-सिगरेट का लती, पर चिरचल ग्रहों की नाईं सतत क्रियाशील, और अपने तरुण हृदय में छिपाये हुए एक मूक व्यथा । अभी तक औरों को यह गोचर न थी। आज दोनों साथियों पर प्रकट कर उठने को आकुल-सा हो आया : इसलिए कि यात्रा का श्रम भूला रहे, और इसलिए कि अपने चरम विपदा-भरे कार्य-दायित्व पर रोमांचित हुए आते मन को दूसरी ओर फेर सके। भिभिराम रह-रहकर धनपुर की मोटी-गठीली उंगलियों को सभय देख उठता था। देहाती प्रवाद के अनुसार ऐसी उँगलियों वाला व्यक्ति विना द्विधा में पड़े
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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