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________________ वे चरित्र पात्र एक सम्भवनीय मानव संसार के सम्भव प्राणी मात्र होते हैं, और उस समूची परिकल्पना का सृजेता स्वयं भी सम्भवन की अवस्था में होता है । उपन्यास-लेखक को सामने की वास्तविकता से ऊपर उठकर उसे विजित करना पड़ता है, तभी ऐसे चरित्रों की परिकल्पना और सर्जना सम्भव हो पाती है जो उसकी विचार-भावनाओं के प्रतीक और संवाहक बन सकें। सच तो, अपने अभीष्ट चरित्रों की खोज में उसे पल-धड़ी लगे रहना होता है । ऐसा न करे वह तो उसके भावित चरित्र उसी का पीछा किया करेंगे। और जहाँ अभीष्ट चरित्रों का रूपायन हुआ कि फिर उसे एक ऐसे कल्पना- प्रसूत लोक-परिवेश की रचना करनी होती है जहाँ वे सब रह सकें, सक्रिय हों, सोचें- विचारें और गन्तव्य की ओर बढ़ते जा सकें । अवश्य अपना एक-एक चरित्र उसे लेना होगा युगीन वास्तविकता से ही और लेना भी होगा बिल्कुल मूल रूप में मृत चाहे जीवित । एक सीमाबिन्दु तक पहुँचने के बाद फिर लेखक की ओर से चरित्र पात्रों को छूट मिल जाती है कि अपने-अपने वस्तुरूप का अतिक्रम करें और उसकी अपनी भावनाओं और मूल्यों के साथ एकाकार हों । : वास्तव में सृजन प्रक्रिया को शब्द बद्ध कर पाना कठिन होता है। किस प्रकार क्या-क्या करके किस रचना का सृजन हुआ, इसमें पाठक की रुचि नहीं होती । उसका प्रयोजन सामने आयी रचना से होता है। और सामने आयी रचना पर तो सृजन - पीड़ा के कोई चिह्न कहीं होते नहीं । अनेक बार होता है कि अनेक चरित्रों के भाव-रूप अनेक-अनेक बरसों तक लेखक की चेतना के कोटरों में अधमुंदी आँखों सोये पड़े रहते हैं, और फिर रचना सृजन के समय उनमें से कोई भी हठात् आकर कथानक में भूमिका ग्रहण कर लेता है । ये तीनों उपन्यास --' इयारूइंगम', 'प्रतिपद' और 'मृत्युंजय' - लिखते समय ऐसा ही ऐसा हुआ । इनके चरित्र पात्र समाज के उन स्तरों से लिये गये हैं जो सामाजिक वास्तविकता के बीभत्स रूप को देखते भोगते आये हैं और अपनी स्वाभाविक मानवीयता तक से वंचित हो बैठे हैं। वे अब उत्कण्ठित हैं कि संघर्ष करें और यथार्थ मानव बन उठने के लिए अपने को भी बदलें और समूचे समाज को भी । किसी भी मूल्य पर वे अब सामाजिक बीभत्सता का अस्तित्व लुप्त कर देना चाहते हैं; और चाहते हैं कि समाज का बाहरी ही नहीं, भीतरी ढांचा भी स्वस्थ और सहायक रूप ग्रहण करे | 'मृत्युंजय' की कथावस्तु है 1942 का विद्रोह : 'भारत छोड़ो आन्दोलन का असम क्षेत्रीय घटना - चित्र और इसके विभिन्न अंगों के साथ जुड़ा-बँधा अन्य वह सब जो रचना को प्राणवत्ता देता है, समृद्धि सहज मानवीय भावनाओं के चिरद्वन्द्वो की अछूत छवियों द्वारा । कथानक आधारित है वहाँ की सामान्यतम जनता के उस विद्रोह की लपटों को अपने से लिपटा लेने पर, और कैसा भी उद्गार 1
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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