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________________ अनुपमा ने कोई उत्तर नहीं दिया । शइकीया ने फिर पूछा : "क्या बात है ? आप चुप क्यों हैं ?" "मैंने कहा न, मैं कुछ नहीं जानती ।" " बड़ा अच्छा जवाब है आपका !" शइकीया ने झट से कहा । "पर याद रखिये, आप जिसे सही मानकर चल रही हैं, उससे आपका ही नुक़सान होगा" फिर भई, समय का तक़ाज़ा था, मुझे जो कुछ मालूम हुआ उसे बता देने के लिए ही यहाँ तक चला आया ।" अनुपमा ने शइकीया की बात एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल दी । पति का मित्र होने पर भी उसके अन्तर में उसके प्रति किंचित् भी आदरभाव नहीं था । सारी बात को सहज ही लेती हुई बोली : " मेरे हित-अहित की सोच-सोचकर आपको अपना दिमाग़ ख़राब करने की क्यों सूझी ? पहले आपने यह भी सोचा है कि आपने अपने को कितना पतित बना लिया है । मैंने अपने पति से भी कहा था- - अतिदर्पे हते लंका । यह तो सिद्ध ही है कि 'अतिशय रगड़ करें जो कोई, अनल प्रकट चन्दन तें होई ।' और हुआ भी वही । ग़लती दोनों ओर से हुई है। नुक़सान भी दोनों को झेलना पड़ा हैं । जहाँ तक ज्यादती की बात है, इसके लिए आप सब ज़िम्मेदार हैं, लेकिन प्रतिकार करने वाले पक्ष को भी उसकी बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी है ।" शकीया हतप्रभ हो गया । वह कोई प्रवचन सुनने के लिए यहाँ नहीं आया था। उसने कुर्सी से उठते हुए कहा : " मेरा अपना जो कर्तव्य था उसे मैंने पूरा किया। अब बाक़ी आपको समझना है कि आपकी किसमें भलाई है ।" तभी बैठकख़ाने में डिमि ने प्रवेश किया । वहाँ शइकीया को देख वह स्तब्ध रह गयी । " तू कहाँ से आ गयी ?" शइकीया दारोगा ने देखते ही पूछा । "तुम्हें क्यों बताऊँ ?" डिमि ने उत्तर दिया । " तू समझ रही है कि मैं नहीं जानता हूँ ? तुझे पता है, टिको गिरफ़्तार कर लिया गया है ?" " कब ?" डिमि विस्मित हो गयी । वह टिको को स्टेशन तक पहुँचाकर पुल पर से होती हुई अभी आ ही तो रही है । "यही कोई आधा घण्टा पहले ।” "तो क्या अब तुम फिर से मुझे पकड़ने के लिए आये हो ?" " तूने ठीक ही सोचा," शइकीया ने हँसते हुए कहा । " तूने जेल जाने का ही काम किया है । बोल, किया है न ?" "नहीं । तुम मुझसे अपना बदला ले रहे हो ।" डिमि का स्वर कोमल हो मृत्युंजय / 267
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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