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"नहीं तो सारा देश रणचण्डी का यह रूप धारण नहीं करता, भाभी ।" गोसाइन ने दृढ़तापूर्वक कहा ।
अनुपमा ने शिशु को इस बार कहीं और अधिक स्नेह से अपनी छाती से चिपका लिया। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह सरकार नहीं टिकेगी । बोली :
"हाँ, इन लोगों की ज्यादती तो देख ही रही हूँ। जेल में तिल धरने की भी जगह नहीं है । लोग ठसाठस भरे पड़े हैं। मुझे तो लगता है कि इन वालण्टियरों की जड़ खोदकर ही सरकार चैन लेगी ।"
"कृष्ण को भी तो कंस ने जेल में ही रखा था । मारना भी चाहा था । पर क्या कुछ कर पाया ? यह सरकार भी कुछ नहीं कर पायेगी । रही बात वालण्टियरों को जड़ से उखाड़ फेंकने की, सो वह सम्भव नहीं । इनकी रगों में रक्तबीज है; ये मरकर भी जी उठने वाले हैं, मृत्युंजय हैं।"
अनुपमा को लगा कि ननदजी ने अपनी बात बड़ी दृढ़ता और आत्मविश्वास से कही है । वह सहम सी गयी और धीरे से बोली :
" पर मैं कुछ भी ठीक नहीं पा रही हूँ । इन लोगों में कोई विचार या सिद्धांत तो दीखते नहीं । नहीं तो "
"
" ठीक ही तो कह रही हो, भाभी । विचारों में भूल हुई है। भैया की हत्या कर इन लोगों ने बुरा ही किया है। भैया सरकार के बड़े विश्वासी कर्मचारी थे । वे सोचते थे कि कौरवों का खाकर भला पाण्डवों का गुणगान क्यों किया जाये । पर भीष्म, कर्ण, द्रोण सभी तो कौरवों की ओर से ही लड़े थे । फिर भी जीत तो पाण्डवों की ही हुई । क्यों ?”
अनुपमा कुछ नहीं कह सकी । उसे यह युक्ति अकाट्य जैसी लगी । वह चुप हो रही ।
तभी दरवाज़े पर किसी के आने की आहट सुन पड़ी। गोसाइन ने उठकर देखना चाहा । डिमि होगी ! लेकिन उन्हें रोकती हुई अनुपमा स्वयं उठ खड़ी हुई । समय ठीक नहीं है। किस ओर का कौन आदमी कब आ धमके, कुछ कहा नहीं जा सकता। उसने बच्चे को गोसाइनजी की गोद में डाला और कमरे से बाहर निकल आयी ।
बैठकख़ाने में पहुँचते ही अनुपमा ने देखा कि दरवाज़े पर रोहा थाने का दारोगा शइकीया खड़ा है। वह उसके पति का मित्र रहा है। उसे देखकर अनुपमा हुई तो असंतुष्ट ही, पर भद्रता के नाते बैठने को कह उसने पूछा :
"कुछ काम था क्या ?"
"काम तो कुछ नहीं है, किन्तु आपको जरा सावधान कर देने के निमित्त चला आया ।" शइकीया ने यों ही मुसकराते हुए कहा ।
"किस सम्बन्ध में ?"
मृत्युंजय | 265