SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पति मारे गये क्रान्ति में और भाई मारा गया है मुठभेड़ में। बच्चे की तबीयत भी ठीक नहीं है । नहीं तो वे यहाँ से पहले ही चली गयी होतीं ।" रूपनारायण का सिर एकबारगी चकरा गया। जहाँ जाता है, वहीं दो विपरीत स्थितियों का द्वन्द्व उपस्थित हो जाता है । थोड़ी देर तक सोचने-विचारने के बाद उसने पूछा : "अब कहाँ जाओगे ? शइकीया वकील से भेंट हुई थी ?" "नहीं, मैं वहाँ गया नहीं । तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रहा था ।" कुछ रुककर टिकौ ने फिर कहा, "मैं पहले जाकर देख आता हूं । मेरे लिए तो यह अपना ही घर जैसा है । इनके खेत मैं बँटाई पर जोतता रहा हूँ। तू ज़रा इधर ही ठहर | मैं उसी नाते पहले हो आता हूँ ।" रूपनारायण के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही टिकौ पिछवाड़े से शइकीया के घर में घुस गया। रूपनारायण वहीं रुककर एक बीड़ी पीने लगा। उसके मन का सारा द्वन्द्व धुएँ के साथ ही बाहर फैलता गया। कश खींचते हुए वह शइकीया के घर-परिवार से अपने सम्बन्ध के बनते-बिगड़ते क्षणों की स्मृति में खो गया : यही वह घर है, जिसे उसने एक दिन अपना माना था और इस घर के लोगों ने भी उसे प्यार देकर अपनाया था। आज इस घर में घुसने के लिए उसे प्रमाणपत्र की आवश्यकता है । आज दोनों के बीच वक़्त की ही नहीं, सामाजिक रीतिनीति की दीवार भी खड़ी है। फिर भी, वह एक बार आरती से मिलना चाहता था । वह होगी तो घर पर ही, लेकिन उन्हें मिलने दिया जायेगा या नहीं ? कौन जाने ! ठीक इसी समय, घर का दरवाज़ा खोलकर एक महिला बाहर जाती दिखी। वह किसी को ढूंढ़ रही थी शायद । रूपनारायण ने बीड़ी का टोटा फेंकते हुए कहा : "आप किसे ढूँढ़ रही हैं, माँजी ?" " आपको ही । आप बाहर क्यों खड़े हैं ? अंदर आ जाइये न ।” रूपनारायण घर के अन्दर चला आया । सामने ही बैठकख़ाना था । उस महिला ने उसे कुर्सी पर बिठाकर पूछा : "आपने मुझे पहचाना नहीं ?" रूपनारायण ने उस महिला को सर से पाँव तक देखा, उसकी आँखें चमक उठा । उसने कहा : "हाँ, अच्छी तरह ।" वह महिला धीरे-धीरे सहज हो गयी; मुसकराती हुई बोली : "मैंने अपनी ननद से आपके बारे में सब कुछ सुन रखा है । बाहर क्यों खड़े थे ? कहीं पुलिस से पकड़ा न दूँ इसलिए डर गये थे न । ठीक ही तो है । मृत्युंजय | 235 1
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy