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________________ दस धनपुर को यखिनीखोर में रहना अच्छा नहीं लगा । उसने कहा : "कोंवरजी, मुझे नाव तक ले चलो।" आहिना कोंवर अलाव जलाने की तैयारी में जुटा था । भिभि और दधि ने उसे रोका। अलाव सजाने का मतलब होता शत्रु को सन्देश पहुंचाना । धनपुर की पिण्डली से खून रिसना बन्द नहीं हुआ था । अलाव पर सेंकने से भी शायद कुछ होता नहीं । सभी ने इसलिए उसे सँभालकर नाव तक ले जाने का निश्चय किया । तक तक बलबहादुर ने भी नाव तैयार कर रखी थी। छावनीदार नाव । धनपुर को उसमें छिपाकर ले जाना कठिन नहीं था । I कॅली दीदी उसके घाव को देख-देखकर सहलाती हुई रोये जा रही थीं। धनपुर ने अन्त में कहा भी : "दीदी, यह सब क्या कर रही हैं ? जानती हो मेरी मृत्यु निश्चित है । रोने से कोई लाभ नहीं | अब तो आँख मूंदने भर की देर है । पर सुभद्रा कैसी है, यह बताओ न ! एक बार देख लेता उसे तो निश्चिन्त हो जाता ।" कॅली दीदी एकबारगी फफकीं । फिर अभियोग के स्वर में बोलीं : "इन लोगों ने अब तक तुम्हें शायद बताया नहीं । सुभद्रा अब नहीं रही । उसने आत्महत्या कर ली । " भिभि और दधि स्ट्रेचर सहेजने में लगे थे। आग के क्षीण उजाले में दोनों यमदूत से दिख रहे थे । पास ही बैठा मधु रह-रहकर खखारता हुआ अपनी छाती सेंकने में व्यस्त था । उसे ज्वर हो आया था। अंग-अंग टूट रहा था उसका । धनपुर की ओर ध्यान केवल आहिना कोंवर का टिका था । टक लगाये वह परख रहा था कि मर्मघाती समाचार को धनपुर झेल पाता है या नहीं । किन्तु उसे जब लगा कि वह सहज जैसा बना है तब भीतर-भीतर स्वयं आहत हो उठा । एक बड़ी टीस इसकी भी थी उसे कि उसने सब बता देना चाहा मगर और लोग रोकते ही रहे । दो मिनट के पथराये मौन के बाद धनपुर के गले से बोल फूटा : "मुझे लग रहा था कि कोई बात है जो मुझसे छिपायी जा रही है ।" उसकी
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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