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पल में ही सब कुछ समाप्त हो जाता है । उसके बाद आत्मा कहाँ जाती है, शरीर का क्या होता है, कुछ भी नहीं जाना जाता । मानव अपने आपको भी कहाँ पहचान पाता है ?
"तू सीटी क्यों बजाता है रे पंछी ? सब ठीक है न ?”
- धनपुर पूरी ताक़त से रिच घुमा रहा है । हथौड़ी चला रहा है। ठनाक्-ठना की आवाज़ आती है । भिभिराम भी ठनाक्-ठनाक् कर रहा है । - चारों ओर जंगल ही जंगल है। दोनों ओर दूर तक और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता । स्थान निरापद है, पर मुसीबत के आने में कितना समय लगेगा ? सरकारी गश्ती दल को गये अभी बारह चौदह मिनट भी नहीं हुए हैं । उनके लौटने में कितना सा समय लगेगा ? यह अवसर चूकना नहीं चाहिए ।
वन- हंसों का करुण रव धनपुर के अन्तर में बार-बार सुभद्रा की स्मृति ताजा कर देता था । पर हथौड़ी की ठनाक्-ठनाक् में वह करुण पुकार स्वयं दब जाती थी । मानो हथौड़ी की चोट खा मन की सारी दुर्बलताएँ स्वयं चूर्ण-चूर्ण हो रही थीं ।
रिच चलाते चलाते धनपुर के ललाट से पसीने की बूंदें टप-टप चूने लगीं । पन्द्रह मिनट तक बराबर कोशिश करते रहने के बाद ही वह फिशप्लेटें खोलने में सफल हो सका। पटरियों के सिरे अलग हो गये। फिर उसने एक बार भिभिराम की ओर देखा । भिभिराम उससे पहले ही काम में जुट पड़ा था, पर अब तक वह सफल न हो सका था । उसे तब भी एक जोड़ खोलना बाक़ी ही था ।
धनपुर एक और फ़िशप्लेट खोलने के लिए कुछ आगे बढ़ गया। सूरज का प्रकाश धीरे-धीरे मन्द पड़ता जा रहा था । रूपनारायण के पास वाले टीले के उस पार आकाश का रंग फीका पड़ चुका था । धनपुर इस बार और अधिक तेज़ी से फिशप्लेट खोलने लगा । भिभिराम की ओर देखते हुए उसने कहा :
" जल्दी करो भिभि भैया, जल्दी करो !”
कड़ी मेहनत के बाद भिभिराम ने एक फ़िशप्लेट खोली और दूसरी ओर बढ़ गया। और फिर जितनी शीघ्रता से सम्भव था, दूसरी फिशप्लेट को खोलने में जुट गया ।
हथौड़ी की चोट के साथ-साथ भिभिराम धनपुर की ओर मुड़कर देख लेता था । धनपुर पूरी तरह निडर हो काम में जुटा था । उसे कोई संशय या सन्देह नहीं था । फिशप्लेट का दूसरा जोड़ खुलने में अब कोई देर नहीं रह गयी थी । उसकी इच्छा-शक्ति प्रबल थी । इधर भिभिराम के हाथ मानो चल ही नहीं रहे थे । उसका मन कोई अव्यक्त आघात महसूस कर रहा था आख़िर कैसा था वह आघात ? आदमियों के मरने का ? कहीं इतने सारे मनुष्यों के मरने का
160 / मृत्युंजय