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________________ रूपनारायण : गम्भीर स्वभाव का सुन्दर युवक । दप-दप गोरा मुखमण्डल । वह अब तक उनकी हँसी-दिल्लगी देख रहा था। साथ ही गम्भीरतापूर्वक गौर कर रहा था प्रत्येक व्यक्ति की बातचीत और उनकी भंगिमा पर । और की कौन कहे, सुभद्रा की बात निकलते ही भिभिराम ने आहिना का मुख जिस प्रकार बन्द किया था, वह भी उससे अलक्षित नहीं रह सका था। उसमें उसे कोई रहस्य नहीं लगा, हां, थोडी गोपनीयता की आवश्यकता ही ध्वनित होती हुई लगी थी। उसने उत्तर दिया : "हाँ, चलने का समय हो गया है । चाय पीते ही चल दंगा । एक मशाल भी तो चाहिए । उधर उत्सव चल रहा है। हमें तड़के ही रवाना होना होगा। संभवतः मधु भी अब आता ही होगा। सबके बीच एक सामंजस्य तो हो ही जाना चाहिए। धनपुर ठीक ही पूछ रहा है—गोसाईजी कहाँ गये हैं ?" भिभिराम ने सारी बात बता दी। आहिना ने रूपनारायण के मुखड़े की ओर देखा । मन-ही-मन कहने लगा : रूपनारायण सच ही रूप का नारायण है। सारे आँगन में वह अपना प्रकाश फैला रहा है। पूछा : "तुम्हारा घर कहाँ है बबुआ, हे कृष्ण !" "कपाहेरा की ओर।" "पढ़ रहे हो न ?" "हाँ । लेकिन कॉलेज छोड़कर आ गया हूँ। वे सारी बातें पीछे बताऊँगा। अब तैयार हो जाइये । गोसाईंजी ने हमें आगे चल देने को कहा था। धनपुर ही यहाँ रहे । आपका क्या विचार है ?" "हाँ । गोसाईंजी भी वही कह गये हैं। हम डिमि को साथ लेकर आगे बढ़ चलें।" रूपनारायण ने स्थिति को समझते हुए कहा, "नहीं, डिमि भी यहीं रहे । डिमि के चले जाने पर गोसाईंजी को चाय देने वाला कोई रह नहीं जायेगा । हम तीनों ही आगे बढ़ें। मशाल हाथ में ले लें। थोड़ा किरासन तेल भी साथ रख लें। आवश्यकता पड़ने पर रास्ते में जला लेंगे। गांव के पास ही जंगल अधिक घना है। जलाना वहीं आवश्यक होगा।" भिभिराम और आहिना चलने को तैयार हो गये। तभी डिमि दो और चोंगों में चाय ले आयी। डिमि के हाथ से चाय का चोंगा लेकर रूपनारायण बड़े प्यार से मुसकराते हुए बोला : "डिमि दीदी, तुम और धनपुर दोनों थोड़ी देर यहीं बैठो। गोसाईजी के आते ही चली आना। हम तब तक आगे बढ़ते हैं। तुम लोगों की पूजा का आज अन्तिम दिन है न ? " मृत्युंजय / 97
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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