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वास्तु चिन्तामणि
वास्तु पुरुष चक्र प्रकरण
वास्तु निर्माण की जाने वाली भूमि पर निर्माण की जाने वाली स्थितियों को वास्तु पुरुष की आकृति बनाकर समझाया जाता है। जिस स्थान पर वास्तुपुरुष के मस्तक, हृदय, नाभि, शिखा का भाग आता है, वहां पर वास्तु के स्तम्भ नहीं रखना चाहिए।
भूमि की आकृति में वास्तु पुरुष की कल्पना करने के लिए उसके 108 भाग किए जाते हैं। इसका अंग विभाग अगले पृष्ठ पर दी गई सारणी के अनुसार करना चाहिए।
वास्तुपुरुष अंग विभाग निम्न श्लोकों के अनुरूप किया जाता हैईशो भूर्ध्निसमाश्रितः श्रवणयोः पर्जन्यनामादिति - रापस्तस्य गले तदंशयुगले प्रोक्तो जयश्चादितिः । उक्तावर्यमभूधरौ स्तनयुगे स्यादापवत्सो हृदि, पञ्चेन्द्रादिसुराश्च दक्षिणभुजे वामे च नागादयः ।। सावित्र सविता च दक्षिणकरे वामे द्वयं रुद्रतो, मृत्युर्मेत्रगणस्तथोरुविषये स्यान्नाभिपृष्ठे विधिः । मेढू शक्रजयौ च जानुयुगले तौ वहिरोगौ स्मृतौ, पूषानंदिगणाश्च सप्तविबुधा नल्योः पदोः पैतृकाः ।।
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वास्तु सार पृ. 64
इस श्लोक के अर्थ के अनुरूप वास्तु पुरुष के जिस अंग पर जिस देवता का नाम उल्लेखित है वहां उस देवता की स्थापना करना चाहिए। प्रस्तुत सारणी में इसको स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है।
इस प्रकार स्थापित वास्तुपुरुष के मुख, हृदय, नाभि, मस्तक, स्तन, लिंग आदि मर्मस्थानों पर दीवार, स्तम्भ या द्वार नहीं बनाना चाहिए। ये गृहस्वामी के लिए अहितकर होते हैं।