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वास्तु चिन्तामणि
है । वास्तुसार प्र. गाथा 5 में वर्णानुसार पृथक-पृथक रंग की भूमि की उपयोगिता अपने आप में प्राचीन होते हुए भी अद्वितीय है।
प्रारम्भ से ही यह मान्यता रही है कि भूमि अशुद्ध होने से उस पर निर्मित भवन उपयोगकर्ता के लिए विशेष कष्टकर होते हैं। भूमि में अस्थि, कोयला आदि निकलना भी अशुभ माना जाता है। आवासगृह के अतिरिक्त देवालय निर्मित करते समय भी भूमि का चयन अत्यंत सावधानी से करना चाहिए। दान में प्राप्त है, यह सोचकर यद्वा तद्वा अशुभ लक्षणों वाली भूमि पर कभी भी जिनालय निर्मित नहीं करना इष्ट है । देवालय भूमि में अशुद्धि सारे ग्राम अथवा क्षेत्र को कष्टकारक होती देखी जाती है। अनेकों ऐसे स्थान हैं जहां भव्य जिनालय होने के उपरांत भी ग्राम वीरान हो गए। जो शेष बचे वे अवनति की ओर अग्रसर हुए। अतएवं भूमि शोधन अत्यावश्यक समझकर ही कार्यारम्भ करना चाहिए।
तृतीय खण्ड में दिशा निर्धारण प्रकरण के अन्तर्गत आचार्यश्री ने जहां प्राचीन विधि का वर्णन किया हैं, वहीं यह भी स्पष्ट लिखा है कि इस विधि की अपेक्षा वर्तमान चुम्बकीय सुई से दिशा ज्ञान करना सरल एवं व्यवहारिक है। दिशाओं का विचार, उनके स्वामी एवं उनका प्रभाव संक्षेप में वर्णित किया गया है। भूखण्डों का उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य एवं अतिजघन्य वर्गों में विभाजन सड़कों की अपेक्षा से किया गया है। नवीन भूखण्ड क्रय करने के पूर्व इनका ध्यान रखना क्रयकर्ता के लिए हितकर होगा, इसमें सन्देह नहीं है।
चतुर्थ स्वण्ड वास्तु शास्त्र के प्राचीन सिद्धान्तों पर विशेष प्रकाश डालता है। आपको आश्चर्य होगा कि स्तंभ, कक्ष, द्वार आदि में विविधता करके 16384 प्रकार के मकान बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार के घर यद्यपि वर्तमान युग में बनाना कम ही संभव हो पाता है, फिर भी पाठकों की विशेष जानकारी के लिए धुवादि सोलह तथा शांतवन आदि चौंसठ भेदों के नाम दिए गए हैं । ध्रुवादि घरों की स्थिति तथा उनके निवासकर्ता को मिलने वाले प्रभाव को अति संक्षेप में दर्शाया गया है।
प्राचीन शास्त्रों में अनेक स्थानों पर गृह निर्माण के संदर्भ में यह बतलाया गया है कि आवासगृह में कौन सा कक्ष किस जगह बनाया जाए । जैन दर्शन में श्रावकाचार ग्रंथों में प्रमुख उमास्वामी श्रावकाचार में श्लोक क्र. 112 तथा 113 दर्शनीय है। इनके अनुसार पूर्व में श्रीगृह, आग्नेय में रसोईघर, दक्षिण में शयनकक्ष, नैऋत्य में शस्त्र गृह तथा प्रसूतिगृह,