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सुलस वृक्ष के, यक्ष व्यंतर वट वृक्ष के, राक्षस व्यंतर खट्वां वृक्ष के, किन्नर व्यन्तर अशोक वृक्ष के, किम्पुरुष व्यन्तर चम्पक वृक्ष के, महोरग व्यन्तर नागवृक्ष के और गन्धर्व व्यन्तर तुम्वरु वृक्ष के चिह्न युक्त हैं। पिशाच व्यन्तरों के काल और महाकाल, भूत व्यन्तरों के सुरूप और प्रतिरूप, यक्ष व्यन्तरों के पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षस व्यन्तरों के भीम और महाभीम, किन्नर व्यन्तरों के किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुष व्यन्तरों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरग व्यन्तरों के अतिकाय और महाकाय एवं गन्धर्व व्यन्तरों के गीतरति और गीतयशा नामक इन्द्र हैं। इस प्रकार व्यन्तर देवों के सोलह इन्द्र हैं। - (श्लोक ५१५-५२३)
रत्नप्रभा के प्रवशिष्ट एक सो योजन के ऊपर-नीचे दस योजन छोड़कर मध्य के एक सौ योजन में व्यन्तर देवों के द्वितीय पाठ निकाय व जातियां वास करती हैं। उनके नाम अप्रज्ञप्ति, पंचप्रज्ञप्ति, ऋषिवादित, भूतवादित, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड
और पवक है। प्रत्येक के दो-दो इन्द्र हैं। उनके नाम क्रमशः संनिहित और समान, धातृ और विधातृक, ऋषि और ऋषि-पाल, ईश्वर और महेश्वर, सुवत्सक और विशालहास, ह्रास और हासरति, श्वेत और महाश्वेत, पवन और पवकाधिप है।
_ (श्लोक ५२४-५२८) रत्नप्रभा के ऊपर से दस कम आठ सौ योजन जाने पर ज्योतिष्क मण्डल मिलता है। पहले है तारा । तारा के दश योजन ऊपर सूर्य । सूर्य से अस्सी योजन ऊपर चाँद । चाँद के बीस योजन ऊपर ग्रह। इस प्रकार एक सौ दस योजन के मध्य ज्योतिर्लोक है। जम्बूद्वीप के मध्य मेरु पर्वत के ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर मेरु पर्वत को स्पर्श न करता हुआ मण्डलाकार में समस्त दिशाओं में व्याप्त ज्योतिष चक्र प्रावर्तित होता है। केवल एक ध्र वतारा निश्चल है। वह ज्योतिष चक्र लोक के अन्तिम भाग में ग्यारह सौ ग्यारह योजन ऊपर लोकान्त को स्पर्श नहीं करता हुमा मण्डलाकार में स्थित है । नक्षत्रों में सबसे ऊपर स्वाति नक्षत्र और सबसे नीचे भरणी नक्षत्र है। एकदम दक्षिण में मूल नक्षत्र और एकदम उत्तर में अभिजित नक्षत्र है।
(श्लोक ५२९-५३५) इस जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्र हैं । कालोदधि में ४२ चन्द्र और ४२ सूर्य हैं। पुष्कराद्ध में ७२ चन्द्र और ७२ सूर्य