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इन चौदह स्वप्नों को अपने मुख कमल में भ्रमर की तरह प्रवेश करते हुए विजया देवी ने देखे । ( श्लोक २२-३६)
अतः उन्होंने
उसी समय इन्द्र का प्रासन कम्पित हुप्रा । सहस्रनेत्रों से भी अधिक नेत्र रूपी अवधिज्ञान से देख कि- तीर्थंकर भगवान् का गर्भ-प्रवेश हो गया है। इससे रोमांचित देह वाले इन्द्र सोचने लगे - जगत् के लिए जो ग्रानन्द के हेतु रूप हैं, परमेश्वर हैं, विजय नामक द्वितीय अनुत्तर विमान से च्यव कर यहां जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत खण्ड के मध्य भाग में विनीता नगरी के जितशत्रु राजा की विजया देवी नामक रानी के गर्भ में अवतरित हुए हैं । इस अवसर्पिणी में करुणा रस के समुद्र समान ये द्वितीय तीर्थंकर होंगे । यह सोचकर श्रद्धा के साथ सिंहासन, पादपीठ और पादुका का परित्याग कर खड़े हो गए । फिर तीर्थंकर की दिशा की ओर सात-आठ कदम अग्रसर होकर उत्तरीय धारण कर दाहिना घुटना जमीन पर रखकर ईषत् ग्रनमित होकर मस्तक और हाथों से भूमि स्पर्शपूर्वक जिनेश्वर भगवान् की वन्दना कर सौधर्मेन्द्र विनीता नगरी में जितशत्रु के घर आए । अन्य इन्द्र भी आसन कम्पायमान होने से अर्हत् का अवतरण ज्ञात कर भक्तिवश उसी समय वहां आए । शक्रादि इन्द्र कल्याणकारी भक्ति सम्पन्न होकर महारानी विजया देवी के शयनगृह में आए । ( श्लोक ३७ - ५२ ) उस समय वहाँ उस शयनगृह के प्रांगन में आमलकी की तरह बड़ा समवर्तुल निर्मल और अमूल्य मुक्ताओं का स्वस्तिक बनाया हुआ था । नीलमणियों की पुत्तलिकाओं से अंकित स्वर्ण स्तम्भों और मरकत मरिण के पत्रों से उसके द्वार पर तोरण बनाए हुए थे। सूक्ष्म सूत्र ग्रथित पाँच रंग के प्रखण्ड दिव्य वस्त्र से सन्ध्या के समय मेघ से आच्छन्न प्रकाश की तरह चारों ओर चंदोवा बंधा हुम्रा था । उसके चारों और स्थापित यष्टि के समान सुवर्ण धूपदान से धुआँ निकल रहा था। उस कक्ष में दोनों ओर से ऊँचे, मध्य भाग में सामान्य नीचा, हंस- पंख-सा श्वेत रुई से भरा उपाधान ( तकिया) शोभित, उज्ज्वल चादर बिछाई हुई सुन्दर शय्या थी । उस पर विजया देवी गंगातट पर बैठी हंसिनी-सी शोभित हो रही थी । उन्हें इन्द्र ने देखा । अपना परिचय किया और तीर्थकर जन्म की सूचना देने फिर सौधर्मेन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी कि - जिस प्रकार ऋषभदेव
देकर इन्द्र ने नमस्कार वाला स्वप्नफल कहा ।