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उसी प्रकार वे भी स्वेच्छा से क्रीड़ा करते हुए भरत-भूमि पर सर्वत्र विचरण करने लगे। ग्रामों में, खानों में, नगरों में, द्रोणमुखों में, यहाँ तक कि किसानों की कुटिया में भी वे विद्याधरों की तरह जिन-पूजा करते। अनेक प्रकार के भोग-उपभोग भोगते, खब धन दान देते, मित्रों को प्रसन्न करते, शत्रों का नाश करते, पथों पर स्मारक रखने में कौशल बताते, उत्क्षिप्त अस्त्रों द्वारा निपुणता दिखाते, शस्त्र और शस्त्रधारियों की विचित्र और विनोदपूर्ण कथाएं समवयस्क राजाओं को सुनाते । इस प्रकार वे अष्टापद पर्वत के निकट आए। उस पर्वत पर ऐसी औषधियां थीं जिन्हें देखने मात्र से क्षुधा, तृष्णा दूर हो जाती। जो कि पुण्य सम्पत्ति का स्थान रूप था।
___ (श्लोक ८१-८७) वह अष्टापद पर्वत वृहद् सरोवरों से देवताओं के अमृत-रस का भण्डार हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। सघन और पीत रङ्ग के वृक्षों से सन्ध्या में श्याम वर्ण के मेघों से आवृत्त हो गया हो ऐसा लग रहा था। समीप के समुद्र से वृहद् पंखों वाला पोत-सा लग रहा था। झरने के प्रवाहित जल-प्रवाह से ऐसा लग रहा था मानो उन पर पताकाओं के चिह्न अङ्कित हों। उस पर विद्याधरों का विलास-गृह था इससे वह नवीन वैताढय पर्वत हो ऐसा लग रहा था। हर्षित मयूरों के मधुर स्वर से लग रहा था मानो वह गीत गा रहा हो। पर्वत-शिखर पर अनेक विद्याधारियों के रहने के कारण वह पुत्तलिका युक्त चैत्य-सा लग रहा था । चतुर्दिक विक्षिप्त रत्नों से वह रत्न निर्मित पृथ्वी के मुकुट-सा प्रतिभासित हो रहा था। वहाँ सदैव वन्दना के लिए पाए चारण, श्रमणादि से वह नन्दीश्वर द्वीप-सा लग रहा था ।
(श्लोक ८८-९२) कुमारों ने उस स्फटिक रत्नमय पर्वत को जहां सदैव उत्सव होते थे देखकर सुबुद्धि आदि अपने अमात्यों से पूछा-वैमानिक देवताओं के स्वर्ग के क्रीड़ा पर्वत-सा यह कौन पहाड़ है जो पृथ्वी पर उतर आया है ? इस पर प्राकाश स्पर्शी हिमालय पर्वत स्थित शाश्वत चैत्यों की तरह जो वह चैत्य है उसका निर्माण किसने करवाया है ?
(श्लोक ९३-९५) ___मन्त्री बोले-पहले ऋषभदेव भगवान् हुए थे। वे भारत के धर्म-तीर्थङ्कर आदि कर्ता और तुम्हारे पूर्वज थे। उनके पुत्र भरत १०० भाइयों में सबसे बड़े थे। उन्होंने इस छह खण्ड पृथ्वी को