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वाले वे जो कि वृक्षपत्रों को भी स्व-कन्धों पर सहन नहीं करते थे, उन्मत्त हस्तियों को स्व-कन्धों पर उठाकर अपने वशीभूत कर लेते थे। मद में चिंघाड़ता हा हाथी जिस प्रकार विन्ध्य अटवी में क्रीड़ा करता है उसी प्रकार सकल शक्ति सम्पन्न वे समवयस्क अन्य बालकों के साथ उद्यानादि में स्वच्छन्दतापूर्वक क्रीड़ा करते ।
(श्लोक ४२-५०) एक दिन बलवान् राजकुमारों ने राजसभा में बैठे चक्रवर्ती से प्रार्थना की-हे पिता, आपने पूर्व दिशा के अलङ्कारतुल्य मगधपति देव को, दक्षिण दिशा के तिलक रूप वरदामपति देव को, पश्चिम दिशा के मुकुट रूप प्रभासपति देव को, पृथ्वी के दोनों
ओर स्थित बाहों तुल्य गङ्गा और सिन्धुदेवी को, भरत क्षेत्र रूपी कमल की कणिका तुल्य वैताढयकुमार देव को, और भरत क्षेत्र की मर्यादा भूमि स्तम्भ रूप हिमाचलकुमार देव को, खण्ड प्रपाता गुहा के अधिष्ठायक नाटयमाल देव को, नैसर्प आदि नव-निधियों के अधिष्ठायक नौ हजार देवताओं को साधारण मनुष्य की तरह जय कर लिया है । हे तेजस्वी, पापने अन्तरंग शत्रुओं के षड्वर्ग की तरह इस छह खण्ड पृथ्वी को सहज ही परास्त कर दिया है। अब आपके भुजबल के योग्य ऐसा कोई कार्य शेष नहीं है जिसे पूर्ण कर हम कह सकें कि हम आपके पुत्र हैं । अब आपके द्वारा विजित पृथ्वी पर स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण करके ही हम यह सार्थक कर सकें कि हम आपके पुत्र हैं, यही हमारी इच्छा है। हम चाहते हैं आपकी दया से गृहांगन की तरह समस्त पृथ्वी पर हस्ती की तरह स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण करें।
(श्लोक ५१-६०) पुत्रों की यह प्रार्थना राजा सगर ने स्वीकृत की। महापुरुषों से की गई अन्य लोगों की प्रार्थना भी जब व्यर्थ नहीं होती तो फिर अपने पुत्रों द्वारा की गई प्रार्थना तो व्यर्थ होती ही कैसे ?
(श्लोक ६१) अतः उन्होंने अपने पिता को प्रणाम कर स्व-निवास स्थान पर आकर प्रयाण की मङ्गल-सूचक दुन्दुभि निनादित की। उस प्रयाण के समय ही इतने उत्पात और अपशकुन होने लगे कि वीर पुरुष भी भयभीत हो जाए। वृहद् सर्पकुल से प्राकुल रसातल द्वार की तरह सूर्य-मण्डल हजार-हजार केतु नामक ताराओं से प्राच्छादित होने लगा। चन्द्र-मण्डल के मध्य छिद्र दिखाई देने लगा।