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96] द्वारावती से सौराष्ट्र देश (१३) कौशाम्बीपूरी से वत्स देश (१४) भद्रिलपुरी से मलय देश (१५) नान्दीपुरी से सन्दर्भ देश (१६) पुनरुच्छापुरी से वरुण देश (१७) वैराट नगरी से मत्स्य देश (१८) शुक्तिमती नगरी से चेदी देश (१६) मृत्तिकावती नगरी से दशार्ण देश (२०) वीतभयपुरी से सिन्धु देश (२१) मथुरापुरी से सौवीर देश (२२) अपापापुरी से सूरसेन देश (२३) भंगीपुरी से मासपुरिवत देश (२४) श्रावस्ती नगरी से कुणाल देश (२५) कोटिवर्षपुरी से लाट देश (२६) श्वेताम्बीपुरी से केतकार्द्ध देश । ये साढ़े पच्चीस देश इसी भांति नगरी के नाम से परिचित हैं। तीर्थकर, चक्रवर्ती वासुदेव और बलभद्र का जन्म इन्हीं देशों में होता है । इक्ष्वाकुवंश, ज्ञातवंश, विदेहवंश, कुरुवंश, उग्रवंश, भोजवंश और राजन्यवंश
आदि कुल में उत्पन्न मनुष्य को प्रार्य जाति का कहा जाता है। कुलकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और बलभद्र और उनके तृतीय, पंचम एवं सप्तम कुल में उत्पन्न मनुष्य कुल आर्य हैं। पूजा करना-कराना, शास्त्र पढ़ना-पढ़ाना आदि शुभ कर्मों से जो जीविका का निर्वाह करते हैं वे कर्म प्रार्य हैं। अल्प पापयुक्त व्यवसाय जैसे तांती, दर्जी, कुम्भकार, नापित और पुजारी आदि को शिल्प आर्य कहा जाता है। जो उच्च भाषा के नियमयुक्त वर्ण में पूर्वोक्त प्रकार के पार्यों के व्यवहार की भाषा बोलते हैं वे भाषा प्रार्य हैं ।(श्लोक ६६४-६७८)
शक, यवन, शवर, बर्बर, काया, मुण्ड, उड़, गोड्र, पत्करणक, अरपाफ हण, रोमक, पारसी, खस, खासिक, डोम्बलिक, लकुस, भील, अन्ध्र, बुक्कस, पुलिन्द, कौंचक, भ्रमररुत, कुच, चीन, वंचक, मालव, द्रविड़, कुलंज्ञ, किरात, कैकय, हयमुख, गजमुख, तुरगमुख, अजमुख, हयकर्ण, गजकर्ण आदि और भी अनार्य भेद हैं। जो धर्म इन अक्षरों तक को नहीं जानते, धर्म-अधर्म को पृथक नहीं समझते वे सभी म्लेच्छ कहलाते हैं। (श्लोक ६७९-६८३)
अन्य अन्तर्वीपों में भी मनुष्य रहते हैं। वे भी धर्म-अधर्म को नहीं समझते। कारण, वे युगलिक होते हैं। इस प्रकार छप्पन अन्तर्वीप हैं। उनमें अट्ठाइस द्वीप क्षुद्र हिमालय पर्वत के पूर्व और पश्चिम दिशा के शेष भाग में ईशान कोणादि चारण विदिशाओं में लवण समुद्र में वहिर्गत अंश पर अवस्थित हैं। ईशान कोण में जम्बूद्वीप के भू-भाग से ३०० योजन लवण-समुद्र में जाने से वहां उतना ही लम्बा-चौड़ा एकोरू नामक प्रथम अन्तर्वीप है। उस द्वीप