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उसी श्राकृति के दो सूर्यद्वीप पश्चिम दिशा से सम्बन्धित दोनों विदिशाओं में हैं । सुस्थिर देवताओं का प्राश्रयभूत गौतम द्वीप ठीक उनके मध्य में अवस्थित है । लवण समुद्र सम्बन्धित शिखा के इधर की ओर एवं बाहर की तरफ चलमान चन्द्र और सूर्य के श्राश्रयरूप द्वीप है । उन पर उनके प्रासाद अवस्थित हैं । यह लवण समुद्र लवण - रसयुक्त है । ( श्लोक ६१९-३९ )
लवण समुद्र के चारों ओर इसके दुगुने विस्तार वाले धातकी खण्ड हैं। जम्बूद्वीप में जितने मेरुपर्वत, क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं उनसे दुगुने और उसी नाम के धातकी खण्ड में है । एकदम उत्तर और दक्षिण में धातकी खण्ड के प्रस्थानुरूप धनुषाकार पर्वत है | उनके द्वारा विभाजित पूर्वार्द्ध और पश्चिमार्द्ध के प्रत्येक में जम्बूद्वीप के समान संख्या युक्त क्षेत्र और पर्वत हैं । इसी धातकी खण्ड में चक्र के चारे की तरह आकार वाला और निषध पर्वत की तरह ऊँचा कालोदधि और लवण समुद्र को स्पर्श करता हुआ धनुषाकार वर्षधर पर्वत हैं । क्षेत्र के परिमाण श्रारे के दूरत्व के समान है । ( श्लोक ६४०-४३)
धनुषाकार पर्वत
धातकी खण्ड के चारों ओर कालोदधि विस्तार ८ लाख योजन है। इसके चारों ओर ठीक उसी प्रकार का है । धातकी खण्ड में सहित मेरु आदि की जो संख्या बतायी गयी है पुष्करार्द्ध भी ठीक उसी तरह का है । पुष्करार्द्ध में क्षेत्रादि का आकार धातकी खण्ड के क्षेत्रादि के आकार का दुगुना है। धातकी खण्ड और पुष्करार्द्ध मिलाकर चार छोटे मेरु पर्वत हैं । वे जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पन्द्रह हजार योजन कम ऊँचे और छह सौ योजन कम विस्तार वाले हैं। इनके प्रथम काण्ड महामेरु की तरह, द्वितीय काण्ड सात हजार योजन कम और तृतीय काण्ड प्राठ हजार योजन कम है । इनमें भद्रशाल और नन्दन वन मुख्य मेरु के समान हैं । नन्दन वन से साढ़े पचपन हजार योजन जाने पर सोमनस नामक बन पाया जाता है । सोमनस पाँच सौ योजन बड़ा है । वहाँ से अट्ठाईस हजार योजन जाने पर पाण्डुक वन मिलता है। वह चूलिका के चारों ओर चार सौ चौरानवे योजन विस्तार युक्त है । इसके ऊपर और नीचे का विस्तार और अवगाहन महामेरु की
समुद्र है । इसका पुष्करवर द्वीपार्द्ध