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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्
श्री अजितस्वामि- सगरचक्रवर्ति-चरित
द्वितीय पर्व
प्रथम सर्ग
सोन मरिण की शोभा को जय करने वाले एवं नमस्कार करते समय इन्द्र के मुख के दर्पण तुल्य श्री अजितनाथ भगवान् के चरणकमलों के नख सर्वदा जयवन्त हों । ( श्लोक १ )
यहाँ (अर्थात् भगवान् ऋषभदेव के चरित्र दर्पण के पश्चात् ) मैं (हेमचन्द्राचार्य) कर्म रूपी पाप विनष्ट करने के लिए जांगुलि मन्त्र के समान भगवान् अजितनाथ के चरित्र का वर्णन करता हूं ।
( श्लोक २ )
प्रथम भव
समस्त द्वीपों में नाभि के समान जम्बूद्वीप के मध्य भाग में जहां दुःषमा- सुषमा नामक चतुर्थ आरा सर्वदा वर्तमान रहता है ऐसा यहां विदेह नामक क्षेत्र था । उस क्षेत्र में सीता नामक महानदी के दक्षिण तट पर महा समृद्धिशाली वत्स नामक एक देश था । मानो स्वर्ग का एक टुकड़ा ही धरती पर उतर आया हो इतना अद्भुत सौन्दर्य लिए वह देश सुशोभित हो रहा था। वहां एक गांव के पश्चात् दूसरा गांव, एक नगर के पश्चात् दूसरा नगर अवस्थित होने के कारण शून्यता तो मात्र श्राकाश में ही थी। गांव और नगर
समृद्धि एक समान होने के कारण उनका पार्थक्य केवल राज्याश्रय से ही अनुभूत होता । वहां स्थान-स्थान पर मानो क्षीर समुद्र की धारा से भरी हों ऐसे स्वच्छ और सुमधुर जल की वापिकाएँ थीं । महात्मानों के अन्तःकरण की तरह स्वच्छ, विशाल एवं जिनकी गम्भीरता जानी नहीं जा सकती ऐसे सरोवर थे । पृथ्वी रूपी देवी के वल्लियों के विलास को विस्तृत करने वाली सब्ज लतानों से सुशोभित उद्यान थे । गांव-गांव में पथिकों की प्यास