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आगम, सिद्धान्त एवं चर्चा ]
वरघमान
वर्ती
सवा जिन शासन सुख सार पाये
यह
उपगार तुम तर्जी, मैं
सुखकार ।
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अथ शास्त्र गोमट्टसार जी वा त्रिलोकसार जी वा लब्धिसार जी के अनुसारि वा किंचत और शास्त्रां के अनुसारि चर्चा लिखिये हैं सो हे मध्य तु जानि सो ज्यान जाण्यां पदारथा का सरूप जयार्थ जाण्यां जाय । श्रर पदारथ का सरूप जरिए वा करि सम्यक्त्व की प्राप्ति होय । घर सम्यक्त्व की प्रापति से शुद्ध स्वरूप की ' प्रापति होय सो एही बात उपादेय जारिए मव्य जीवन के चर्चा सीखना उचित है ।
अन्तिम पुष्पिका
इति श्री चीदह गुणस्थानक की वचनिका करी श्री जिनेसर की वाणी के अनुसार संपूर्ण ।
दोहा -- चौदह गुणस्थानक कथन, भाषा सुनि सुख होय ।
अस्वयराज श्रीमाल नं, करी जथामति जोय ||
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इति श्री गुणस्थान टीका संपूर्ण | ग्रन्थ कर्त्ता अखय राज श्रीमाल ।
३३३. प्रतिसं०- ३ | पत्र सं० २९ १ ० काल - X। भपूर्ण । वेष्टन स० - ६४ । प्राप्ति स्थान- दि० जैन मन्दिर बड़ा बीस पंथी दोमा ।
विशेष- - पत्र सं० ३० से ३४ व २६ से आगे नहीं हैं ।
३३४. प्रति सं० ४ । पत्र सं०-५२ | ले० काल सं० १७४१ कार्तिक बुदी ६ । नेष्टन सं० ६०६ ॥ प्राप्ति स्थान दि० जैन मन्दिर लश्कर, जयपुर ।
३३५. प्रति सं०- ५ | पत्र सं० २० १ ० - ६ x ४३ इव । प्रपूर्ण वेष्टन सं० -- २६६ प्राप्ति स्थान - दि० जैन मन्दिर दीवानजी कामा ।
३३६. प्रतिसं० ६ । पत्र सं० ४२ | ले० काल सं० १५१२ । पूर्ण । येन सं० ६१ प्राप्ति स्थान- दि० जैन श्रग्रवाल मन्दिर उदयपुर ।
विशेष - प्रशस्ति निम्न प्रकार है
सं० १८१२ वर्षे पौषमासे उदयपुर मध्ये |
कृष्णपक्षे तीज तिथी शनिवासरे गुसस्थान की भाषा टीका लिखी
ग्रन्थ प्रमारण - प्रति पत्र १२ पंक्ति एवं प्रति पंक्ति ३५ अक्षर
३३७. प्रतिसं० ७ । पत्र [सं० ५३ । ले० काल सं० १८५४ : पूर्ण वेष्टन सं० ११६/२८ । प्राप्ति स्थान - पार्श्वनाथ दि० जैन मन्दिर इन्दरगढ ।
३३८. प्रतिसं० ८ । पत्र सं० ५२ । ले० काल सं० १७५० कार्तिक ख़ुदी । पूर्ण वेष्टन सं० १६७ । प्राप्ति स्थान दि० जैन मन्दिर दीवानजी कामा ।
विशेष- -कामा में गोपाल ब्राह्मण ने प्रतिलिपि की थी ।
३३६. प्रतिसं० । पत्र सं० ६५ ० १० X ४३ इव । ले० काल सं० १७५८ पूर्ण घेन सं० ७० । प्राप्ति स्थान - दि० जैन मन्दिर दीवानजी कामा ।