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विषय-नाटक एवं संगीत
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५५९४. इन्द्रिय नाटक---- 1 पत्र सं० १६। प्रा० ५२४७३६च । भाषा-हिन्दी पद्य । विषय--ताटक । २० काल सं० १९५५ : ले. काल ४ ! पूर्ण । वेष्टन सं० १५० । प्राप्ति स्थान–दि. जैन मन्दिर राजमहल (टोंक)
विशेष-नाटक की रचना अथकार ने अपने शिप्य तिलोका पाटनी, राजबल्लभ नमीचन्द फुलवन्द पटवारी खेमराज के पुत्र प्रादि की प्रेरणा से प्राषाढ मास की अष्टाह्निका महोत्सव के उपलक्ष में सं० १९५५ में केकष्टी में की थी। रचना का आदि अन्त भाग निम्न प्रकार है। प्रादि भाग
परम पुरुष प्रमेस जिन सारद श्री वर पाय ।
यथा शक्ति तुम ध्यानते नाटक कह बनाय ।। X
इक दिन मनमंदिर विष सुधिधि धारि उपयोग ।
प्रकट होय देखहि विविध इन्द्रीन को अनुयोग ।। अन्तिम भाग
जिय परत त्रिय भेद बताई।
शुभ र अशुभ बुद्ध यू गाई । नाटक अशुभ शुभई दोय जानू ।
शुद्ध कथन अनुभव हिमा ।। सो नाटक पूरण रस थाना,
पडित जन उपयोग लगाना । उतपत नाटक की विध जाा।
विद्या शिष्य के प्रेम लखानु । अष्टाह्निक उत्सद जिन राजा ।
साह मास का हुआ समाजा। शुल्क तिथि ग्यारस मुज पासा ।
प्राये शिष्य नाटक करि प्रासः ।। मोत पारशी नाम तिलोका,
राजमल्ल नेमीचन्द कोका। फूलबन्दजी हैं पटवारी,
कहे सब नाटक क्यों कहो सुखकारी ॥ सेमराज मुत बैन उचारी,
इन्द्री नाटक हे उपकारी। धर्म हेतु यह काज विचारयो, . नाना अर्थ लेय मन धारयो ।