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कथा साहित्य ]
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सिहासन बत्तीसी जिनउ सिद्धसेन गराधारि।।
भाख्यु ते लबलेस लहि दायद विनइ विचार ॥१॥ दहा--
सिहासन सौहरण सभा तिणि पूतत्नी वसीस । मोजराइ भागनि करई विक्रमराइ सतीस ।।२।। ते सिंहासन केहनउ किरिण प्राप्यु किम भोजि ।
लाघउ केम कथा कही ते संभलज्यो बोज ॥३॥ अन्तिम
पास संलानी गुणे वारिट्ठ केसी गुरु सरिखा जगि जिट्ठ। रयणयह सूरीसर जिसा अनुक्रमि कल्बु गरिगुरण निसा ॥३७॥ तासु पाटि देवगुपति गुरुचंद,तेहनइ पाटहि सिद्ध सुरिदं ॥ तहनई पद पंजक जिम भारण, जे गुरु गफ आगुरणे निहाण ॥३८॥ सपइ विजयवंत कान्वु सूरि, तस पसाइ भइ याणंद सूरि । अंतेबासी तेहनउ सदा, हर्ष समुद्र जिसो निधि मुदा ॥३६।। तसु पयक्रमल कमल मध भृग, विनय समुद्र वाचकमन रंग ॥ संबद सोलह वरराइ ग्यार, सिंधाराण बत्तीसी सार ॥४०॥
लेइ बोध उ एह प्रबंध मटमती मंद चौउपद बंधि।
गणतो गुराता हुइ कल्याण अवित्रल वीकनीयर अहिठाण ॥४१॥ इति सिंघासणवत्तीसी कथा चरित्र संपूर्ण
४८६४. सिंहासन बत्तीसी-हरिफूला। पत्र सं० १२३ । आ० १२४५३ इञ्च । भाषा-हिन्दी (पा) 1 विषय-कया। र०काल सं० १६३६ 1 ले०काल सं० १८०६ । पूरणं । वेष्टन सं०१०। प्राप्ति स्थान--दि. जैन खण्डेलवाल सेरहपंधी मन्दिर दौसा। प्रारम्भ---मंगला चरण।
पारादी श्री रिषभप्रभु जुगलाधर्म निवारि । कथा कहों विक्रमतरणी, जास साकर विस्तार ॥ साकी बरत्या दान थी दान बडौ संसारी। बलि विशेष जिण सासरमा बोल्या पंचप्रकार ।। अभय सुपात्र दोन चिहुँ प्राणी मोख संजोग ।
अनुकंपा धरि तर्कुचित एत्रिहूं दाने भोग।। पत्र ७२ पर कथा ६
हितसारारे नयरी, भोज निरसरु । सिंधाराण रे माने सुभ मठूतं वरु ।। तब राधारे दशभी बोलऊ मही । विक्रम समरे होवे तो असे सही ।।