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प्रारम्भ
अन्तिम
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दोहा-:
श्लोक
सामि सारदा, सकल कला सुपसिद्ध । बुद्धि ॥१॥
सुसर अलाप मारत हस्ति बजावद बीरा।
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दिन दिन अति आद भर, सयल मुरासर लीग || २ || यदि कुमारी बाज लमि ब्रह्म रुद्र हरिभात। अलस अनंत अगोचरी सुयश जगविख्यात ॥ ३॥ कासमोर गुलमंडी, सेवक पुरद्द घास। सिद्धि बुद्धि मंगल करइ, सरस बबन उल्हास ॥४॥ श्री सद्गुरू पसाउ र समनुपम नाय जास पसाइ पामीर, मन वंचित सविकाम ||५|| नारी नामि ससिकला तेह तस्सु भरतार | कवि विल्हा गुण व सील सर्वि सुख संपज सो संपत्ति हो । यह भवि परिभत्रि सुख लहर, सीम तो फल जोइ ४७॥ तरां सील प्रभावि आपदा टाली पाप कलंक
सील तराइ अधिकार ॥६॥
कवि
सुविलासिया सुराज्यो की संक ||८||
एकदिनी पई भराइ एक मनांवर । तास परे निधि विस्तारद्द निसुता सुख संपत्ति कर
frरही ता विरह दुख ल मनगमती रस रमणी मिलइ ॥
'समझई श्रोता चतुर सुजाण ।
मूरिख म णहइ भाग बजाए ॥
सुमाणामि गोठ की, लाडु विहं परे अहूरा पूरा करइ पूरा ग्रामो रे ॥४॥
[ ग्रन्थ सूची- पंचम भा
असूखनाराध्य सुखतरमाशव्यते विशेषज्ञः । शानलविदा ब्रह्मनि जति ५॥ वर पर्वत श्रत वनचरः सह । या संसर्गः सुरेन्द्रभवनेष्वपि ॥६॥ मूर्खजनसंसर्ग
पंडितोजी नर शत्रु मा मूर्ती हितकारक "बानरेण हतो राजा मित्रा पौरेण रक्षितः ॥७