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[ गुटका संग्रह
प्रारम्भ:--
अथ विहारी सतसई टीका कवित्त बंध लिख्यते:
मेरी भत्र वाचा हरी, राधा नागरी सोड।
जातन को माई पर, स्याम हरित दुति होइ। टीका-यह मंगलाचरन है तहां श्री राधा जू की स्तुति ग्रथ कर्ता कवि करसु है । सहां राधा और इंट यांत जा तन को झांई पर स्याम हरित दुति होइ या पद में श्री वृषभान सुता को प्रतीति हुईकवित्त
जाकीप्रभा प्रबलोकत्त ही तिह लोक की मुन्दरता महि वारि । कृष्ण कह सरसो रहे नैननि की नामु यहा सुद मंगल कार) । जातन की झलक झलके हरित शु ति स्याम की होत निहारी ।
श्री वृषभान कुमारि कृपा के सुराधा हरी भव वाधा हमारी 11 १ ।। मन्तिम पाठ- माथुर विप्र ककोर कुल लाह्यौ कृष्ण कवि नाउ।
सेवकु हाँ सब कविनु को वसतु मधुपुरी गाँउ ॥ २४ ।। राजा मल्ल कवि कृष्ण पर दरधौ कृपा के ढार । भांति भांति विपदा हरी दीनी दरवि प्रशार ।। २५॥ एक दिना कदि सौ मुरति कही कही कों जात । दोहा दोहा प्रत्ति की कवित बुद्धि प्रवदात ॥ २६ ॥ पहले हूँ मेरे यह हिय में हुतो विचारू । करो नाइका भेव को ग्रंथ बुद्धि अनुसार ।। २७ ।। जे कीने पूरव कवितु सरस न थ सुखदाइ । तिनहिं छोडि मेरे कवित्त को पति है मनुलाइ ।। २८ ।। जानिय हैं अपने हिये कियो न गय प्रकास । नृप को प्राइस पाइके हिय में भये हुलास ।। २६ ॥ करे सात से दोहरा सु कवि विहारीदास । सब कोऊ तिनको पढे गुने सुने सपिलाल ॥ ३० ॥ बड़ो भरोसों जानि मै गयो पासरो माइ। माते इन दोहानु संग दीने कवित लगाः ॥ ३१ ।।