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पहिलो समकित सेमीय रे, जे द्वे धर्मनो मूल । संजम सकित बाहिरी, जिरा भास्यो रे तुम खंडण तुलिक ||४||
तहस करीन सरवहो रे, जै भाखो जलनाथ |
पांचे मात्र परिहरो, जिम मिलीइ रे सिवपुरनो साथ ||५||
जीव सहजी जीवेवर वांछिरे, मरण न वांछे कोइ ।
अपस राखा लैखवा, तस
थावर रे हा जो मत कोइ ||६||
चोरी लीजे पर तरणी रे,
तिए तो लागे पाप ।
धन कंच क्रिम खोरीय, जिए बोधइ रे भव भवना संताप के १७
अजस प्रकीरत भव रे, पैरे भव दुख अनेक 1
कुछ कहतर पामीर, काइ भाणी रे मन माहि विवेक ||८||
[ पद भजन गीत श्रादि
महिला संग बुइ हर, नव लख समजुत |
कुण सुख कारण ए तला, किम काजे रे हिस्या मत्रित ॥९॥
पुत्र कलत्र घर हाट भरि, ममता करजे फोक |
जु परिगह डाग माहिले ते खाडरे गया बहुला लोक ॥१०॥
मात पिता बंधव सुतरे, पुत्र कलत्र परवार
सवार्थमा ग्रह कौ सगा,
कोइ पर भवरे नहीं राखणहार ||११|
अंजुल जल नीपरै रे, खिसा रे तुटइ माउ ।
जाते बेला नही रे बाहूडि जरा बालरे यौवन ने धाढ ||१२||
व्याधि जरा जब लग नहीं रे, तब लग धर्म संभाल |
धारा हर घर बरसते, कोइ समरधि रे बाधैगोपाल क ॥१३॥
अलप दीवस को पाहुणा रे, सद्द् कोइ
संसार |
एक दिन उठो जाइवउ, कयरण जाणइ रे किरा हो अवतारक || १५ ॥
क्रोध मान माया तजो रे, लोभ मेबरड्यो लोगारे |
समतारस भवपुरीय वली दौहिलो रे नर अवतारक || १६ ||
प्रारंभ खाडा अन्तमा रे पोउ संजम रसपुरि ।
सिद्ध बघू से सहू को बरो, इम बोलै सखज देवसुरक || १७||
॥ इति जोर ॥