SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ ] पहिलो समकित सेमीय रे, जे द्वे धर्मनो मूल । संजम सकित बाहिरी, जिरा भास्यो रे तुम खंडण तुलिक ||४|| तहस करीन सरवहो रे, जै भाखो जलनाथ | पांचे मात्र परिहरो, जिम मिलीइ रे सिवपुरनो साथ ||५|| जीव सहजी जीवेवर वांछिरे, मरण न वांछे कोइ । अपस राखा लैखवा, तस थावर रे हा जो मत कोइ ||६|| चोरी लीजे पर तरणी रे, तिए तो लागे पाप । धन कंच क्रिम खोरीय, जिए बोधइ रे भव भवना संताप के १७ अजस प्रकीरत भव रे, पैरे भव दुख अनेक 1 कुछ कहतर पामीर, काइ भाणी रे मन माहि विवेक ||८|| [ पद भजन गीत श्रादि महिला संग बुइ हर, नव लख समजुत | कुण सुख कारण ए तला, किम काजे रे हिस्या मत्रित ॥९॥ पुत्र कलत्र घर हाट भरि, ममता करजे फोक | जु परिगह डाग माहिले ते खाडरे गया बहुला लोक ॥१०॥ मात पिता बंधव सुतरे, पुत्र कलत्र परवार सवार्थमा ग्रह कौ सगा, कोइ पर भवरे नहीं राखणहार ||११| अंजुल जल नीपरै रे, खिसा रे तुटइ माउ । जाते बेला नही रे बाहूडि जरा बालरे यौवन ने धाढ ||१२|| व्याधि जरा जब लग नहीं रे, तब लग धर्म संभाल | धारा हर घर बरसते, कोइ समरधि रे बाधैगोपाल क ॥१३॥ अलप दीवस को पाहुणा रे, सद्द् कोइ संसार | एक दिन उठो जाइवउ, कयरण जाणइ रे किरा हो अवतारक || १५ ॥ क्रोध मान माया तजो रे, लोभ मेबरड्यो लोगारे | समतारस भवपुरीय वली दौहिलो रे नर अवतारक || १६ || प्रारंभ खाडा अन्तमा रे पोउ संजम रसपुरि । सिद्ध बघू से सहू को बरो, इम बोलै सखज देवसुरक || १७|| ॥ इति जोर ॥
SR No.090395
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1007
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy