________________
विषय- समाषित एवं नीतिशास्त्र
३३६८. अलमन्दवा....! पल सं० २०१ मा १२४ च । भाषा-हिन्दो । विषय-सुभाषित । २० काल ४ । ले० काल X । पूर्ण | वे० सं० ११ । क भण्डार ।
३३६६. प्रति सं०२। पत्र सं० २० । ले० काल X । वे० सं० १२ । क भण्डार |
३४००. उपदेशछत्तीसी-जिनहर्ष : पत्र सं० ५। प्रा० १०४ च । भाषा-हिन्दी : विषयसुभाषित । र० काल X 1 ले. काल सं० १८३९ । पूर्ण । ० सं० ४२८ । अ भण्डार ।
विपोष
प्रारम्भ-श्री सर्वशेम्यो नमः । प्रष श्री जिनहरण और चितामांम्पदेश छत्रीसी कामहमेव लख्यते स्यात् ।
जिनस्तुति
सकल रूप यामे प्रभुता अनूप भूप,
धूप छाया माहे है न जगचीश छु । पुण्य हि न पाप हे नसित हे न ताप हे,
आप के प्रताप कटे करम प्रतिसयु।। कान को अंगज पुंज सूख्य वृक्ष के निकुंज,
अतिसय चौतिस फुति वदन ये तिसयु । असे जिनराज जिनहर्ष प्ररपमि उपदेश,
की छतिसी कही सवइ एसतीसयु ॥१॥ परे भिड़ काथिलीउ साह परी अमार सीते,
तो प्रतीगति करी जो रसी उठानि है। तु तो नहीं चेतता हे जाणे हे रहेगी युद्ध,
मेरी २ कर रह्यो उमि रति मानी हे। ज्ञान की नीजीर बोल देख न कहे,
तेरी मोह दारू मे भयो वकारणौ प्रज्ञानी है। कहे जीनहर्षे ठरु तन सगैगी बार,
कागद की गुही कौल रहे जी हा पायो ।
अधिरत्व कथन