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________________ ६०] [ नाटक विशेष - मधूक नगर में प्रथ रचना हुई । जोशी राधी ने मौजमाबाद में प्रति लिपि की । ५८८. सान सूर्योदय नाटक भाषा-पारसदास निगोत्या । पत्र संख्या-४ | साइज१०x इश्च ।। भाषा-हिन्दी । विषय-नाटक | रचना काल-सं० १६१७ । लेखन काल-सं० १६३६ । पूर्व | वेष्टन ने ४०२ । ५८. प्रबोधचन्द्रोदय-मल्ल काव । पत्र संख्या-२५ । साइज-८४६ 1 भाषा-हिन्दी । विषय-नाटक रचना काल-सं० १६०१ । लेखन काल-४ । पूर्ण । वेष्टन नं. ८६ | विशेष-इस नाटक में ६ अंक है तमा मोह विवेक युद्ध कराया गया है। अन्त में विवेक की जीत है। बनारसीदास जी के मोह विवेक युद्ध के समान है । रचना का यादि सन्त माग इस प्रकार है प्रारंभिक पाठ-अमिनंदन परमारय कीयो, श्रम है गलित ज्ञान रस पीयो। नारिक नागर चित मैं बस्यौं, ताहि देख तन मन हुलस्यौ ।।१।। कृष्ण भट्ट करता है जहाँ, गंगा सागर मेटे तहाँ । अनुभं को घर जाने सोइ, ता सम नाहि विवेकी कोई ॥२॥ तिन प्रबोधचन्द्रोदय कीयो, जानौ दीपक हाम ले दीयो । र हवा खाद, कायर भी कर प्रतिवाद. ||३|| इन्द्री उदर परागन होप, कबव पै नहीं रीझी सोइ । पंच तत्त्र प्रवर्गात मन धारयो, तिहि माष:नाटिक विस्तारयो ॥४॥ काम उवाच-जो रवि तु बूझति है मोहि, ब्यौरी समै सुनाऊ तोहि । वै बिमात भैया है मेरे, ते सत्र सुजन लागै तेरे ।। पिता एक माता हूँ गाऊँ, यह म्योरी प्रामे समझाऊं। ज्यो राधी अरु लंकपति राक, यो हुम ऊन भयो जुध को घाऊ ।। विवेक श्री विवेक सैन्याह कराई, महाबली मनि कही न जाई । न्याय शास्त्र बेगि मुलाया, तासी कहीबसीठ पठायौ ॥ तव बह गयो मोह के पासा, बोलन लागै बचन उदासा । मथुरादासनि रति जो कीजै, माग ते विरला सो जीजै । राह विवेक कही समझाई, ए व्यौहार तुम छोटो माई । तीरथ नदी देहुरे जेते, महापुरुष के विरद ते ते ॥ या र तुम न सतावी काही, पश्चिम खुरासान को जाही। न्याय विचार कही यो बाता, यतिसै क्रोध न अंग समाता ||
SR No.090394
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages413
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size8 MB
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