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कथा के आधार पर तैय्यार किये हुये हैं। चित्र सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। चित्रों पर मुगलकालीन कला की छाप स्पष्ट झलकती हैं । इस पुस्तक के अतिरिक्त जितनी भी सचित्र प्रतियां हैं वे प्रायः सभी मंत्र शास्त्र एवं विधि विधानों की हैं। ज्वालामालिनी, भैरव, पद्मावती, महामृत्युञ्जय यंत्र आदि के चित्र उल्लेखनीय हैं । कुछ वित्र देवी देवताओं के हैं जिनमें पद्मप्रभ कालिकादेवी, नृसिंहावतार, पद्मावतीदेवी, गणेशजी, धरणेंद्र पद्मावती, सोलहस्वप्न आदि के चित्र आकर्षक है। ३० से अधिक के कां ६० के करीब मन्त्रों के चित्र हैं। कलिकुण्डपार्श्वनाथयंत्र, सूर्यप्रतापयंत्र, तीजापौहूतयंत्र, वज्रपंजरयंत्र, चतुः योगिनी आदि के चित्र भी हैं ।
शास्त्र भण्डार श्री दि० जैन मन्दिर बडा तेरहपंथियों का जयपुर -
जयपुर नगर बसने के कुछ समय बाद ही इस मन्दिर का निर्माण हुआ । मन्दिर के नाम के पूर्व जो 'बड़ा' शब्द लगाया गया है, वह तेरह पंथ आम्नाय की दृष्टि से है । तेरह पत्थ आम्नाय वाले मन्दिरों में यह मन्दिर सबसे प्रमुख है । इसके अतिरिक्त यह एक पञ्चायती मन्दिर भी है। प्रारम्भ से ही इस मन्दिर को साहित्यिक एवं धार्मिक क्षेत्र में केन्द्रस्थान होने का सौभाग्य मिला है। जयपुर में होने वाले प्रतिष्ठित साहित्यिकों का भी इस मन्दिर से अत्यधिक सम्पर्क रहा है तथा उनमें से कितने विद्वानों को तो इसी मन्दिर में बैठकर ग्रन्थ रचना करने का अवसर भी मिला था। इन विद्वानों में महापंडित टोडरमलजी, पं० जयचन्दजी छाबडा, पं० सदासुखजी कासलीवाल, बाबा दुलीचन्दजी के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस मन्दिर में स्थित शास्त्र भण्डार जयपुर के अन्य शास्त्र भण्डारों को अपेक्षा उत्तम एवं वृहद् हैं । यहाँ दो शास्त्र भण्डार हैं। एक स्वयं बड़े मन्दिर का शास्त्र भण्डार तथा दूसरा बाबा दुलीचन्दजी द्वारा स्थापित शास्त्र भरडार | प्रस्तुत पुस्तक में बड़े मन्दिर के शास्त्र भरद्वार के ग्रन्थों की ही सूची दी गयी है | बाबा दुलीचन्द के भण्डार की सूची भी तैयार हो गयी है किन्तु उसे अगले भाग में प्रकाशित की जावेगी ।
सूची बनाने से पूर्व शास्त्र भण्डार की अवस्था कोई अच्छी नहीं थी। शास्त्र भण्डार में कुल कितने ग्रन्थ हैं और वे कौन कौन से हैं इसका पूर्ण परिचय मिलना कठिन था। क्योंकि सैंकडों ऐसे प्रन्थ निकले हैं जिनके विषय में कोई भी उल्लेख नहीं था। इसके अतिरिक्त कोई सूचीपत्र न होने के कारण किसी ग्रन्थ को बाहर स्वाध्याय के लिये निकालना कठिन था । सभी मन्थ अव्यवस्थित रूपमें रखे हुये थे । एक २ वेष्टन में दस दस शास्त्र तक बंधे हुये थे । तथा बहुत से ग्रन्थ तो बिना वेष्टन हो विराजमान थे ! सभी गुटके एक आल्मारी में बिना वेष्टन ही रखे हुये थे। पता नहीं कितने वर्षों से वे इसी रूप में आलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। जिनवाणी माता की यह अवस्था देखकर बहुत दुःख हुआ लेकिन कहा किससे जावे । जिससे भी कहा जावे उसका यही उत्तर होता है कि हमतो इन शास्त्रों के विषय में समभते
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