SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संशयस्तु स्वयमेव निर्णयानिर्णयरूपतयाऽनेकांतरूपतामुपजीवन्न तत्प्रतिक्षेपाय संपद्यते । भावस्यानेकरूपत्वं यद्येकस्वभावात्ततः कार्यमप्यनेकं किं न स्यात्?अनेकस्वभावाच्चेदनवस्था पुनस्तस्याप्यन्यतस्ततो भावात् । इत्यपि न युक्तं, स्वहेतोरेव तथाविधात्तस्य तद्रूपतयोत्पत्तेर्हेतुतथाविधत्वस्यापि तद्धेतु तथाविधत्वादेव भावात् । न चैव मनवस्थानं दोषोऽनादित्वात्तत्प्रबंधस्य । ततो युक्तं सत्वं सर्वस्यानेकात्मकत्वं तदन्यथानुपपत्तिनियमवत्तयासाधयत्सपक्ष विकलस्योदाहरणम् | 186 || संशय तो स्वयं निर्णय तथा अनिर्णय रूप होने के कारण अनेकरूपता को प्राप्त करता हुआ अनेकान्त का निराकरण नहीं कर सकता। पर पक्ष कहता है-भाव को अनेकरूपता यदि एक स्वभाव से मानते हो तो कार्य भी अनेक क्यों नहीं होंगे? अनेक स्वभाव से कहो तो अनवस्था हो जायगी फिर उसके भी अन्य अनेक स्वभाव वाले से होने के कारण। यह कहना भी ठीक नहीं है । उस प्रकार के अपने हेतु से ही उसकी अनेकरूपता होने से, उस हेतु और अनेकरूपता को भी उसके हेतु और अनेकरूपता से अनेकरूपता होने के कारण । इस प्रकार अनवस्था नहीं होती। उस परंपरा के अनादि होने से। अतः सत्व हेतु सर्व पदार्थों में अनेकांतात्मकत्व को सिद्ध करता हुआ सपक्ष विकल का उपयुक्त उदाहरण है, अनेकान्तात्मकत्व के बिना सत्व के नहीं होने का नियम होने से 1186 || सपक्षाविकलमपि द्विधा, सपक्षस्य व्यापकमव्यापकं चेति व्यापकं यथा, अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति । स पक्षे व्यापकत्वं चाऽस्य घटवदनित्ये सर्वत्र विद्युद्वनकुसुमादावपि भावात् । तदव्यापकत्वं तु तत्रैव साध्ये प्रयत्नंतरीयकत्वं, तस्य तत्वं घटवदनित्येऽप्यन्यत्र जलधरध्वानादावभावात् । 187 ।। धर्मी से अभिन्न सपक्ष सहित भी दो प्रकार का है-व्यापक और अव्यापक । व्यापक का उदाहरण है- अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवत् । कृतकत्व हेतु का सपक्ष में व्यापकत्व है घड़े के समान अनित्य विद्युत वन कुसुम आदि में भी सर्वत्र होने से । अव्यापकत्व उसी अनित्य साध्य में प्रयत्नंतरीयकत्व स्वभाव से होना है । कृतकत्व हेतु के घड़े के समान अन्य अनित्य वस्तुओं में होने पर भी मेघ गर्जन आदि में नहीं होने से। 187 ।। धर्मिणो भिन्नमर्पि' लिंगमनेकधा, कार्यकारणमकार्यकारणं चेति । कार्य धूमः पर्वतादौ हि पावकस्य, व्याहारादि शरीरे जीवस्य कारणं, मेघोन्नतिविशेषे वृष्टेः, अभ्यवहारविशेषस्तृप्तेः । करणस्य कथं लिंगत्वं ? प्रतिबंधवैकल्याभ्यां तस्य 1 गच्छन् । "मूलक्षयकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणं । वस्त्वानंत्येऽप्यशक्तौ च नानवस्था निवार्यते" । 3 'अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः कृतक उच्यते । ' अर्थातरं । 5 सौगतः । # साम्र्थ्यप्रतिबंधकारणांतरवैकल्याभ्यां । 2 61
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy