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________________ न स्यात्? अस्य ' तद्भावधर्मत्वे तद्वदसिद्धत्वापत्तेस्तदभावधर्मत्वे चातस्तदभावस्यैव सिद्धेविरूद्धत्वोपनिपातात् तदुभयधर्मत्वे च. व्यभिचारप्रसंगादिति चेन्न, "प्रत्येको भयधर्मविकल्पविकलस्यैवास्याभ्यनुज्ञानात् ।कथमेवं तस्य बहिरर्थभावं प्रत्येव लिंगत्वं न तदभावं प्रत्यपीति चेन्न, तत्रैव तस्याविनाभाव नियमाद्ध मिधर्मस्यापि कृतकत्वादेरनित्यत्त्वादौ तत एव गमकत्वोपपत्तेर्न धर्मिधर्मत्व-मात्रेण कशाखाप्रभवत्वादापि तदुपनिपातेनातिप्रसंगापत्तेः । तत्र साधनं नीलादेः संवेदनत्वसमर्थनं दूषणं बहिरर्थत्वनिषेधनं तयोः प्रयोगः प्रकाशनं' नीलादिः संवेदनात् व्यतिरिक्तस्तद्वेद्यत्वात् सुखादिवदित्यादिश्च, कथं पुनरस्य बहिरर्था - भावेऽनुपपत्तिरिति चेत्, अस्य बहिरर्थविशेषा देव।न हि तदभावे तद्विशेषस्य संभवः वृक्षाभावे शिंशपाभावस्यैव प्रतिपत्तेः ।नासौ तद्विशेष आरोपितरोपिरूपत्वादिति चेत्, न ततः सर्वशक्तिविकलादनिष्टवदिष्टस्याप्यसिद्धेः। अप्यनारोपितोऽप्ययं बोध एव न बहिरर्थ इति चेत् न, प्रतिपाद्यस्य तदभावात्। प्रतिपादकस्येति चेत्, कथं ततः प्रतिपाद्यस्य प्रकृतार्थप्रतिपत्तिरन्यबोधादन्यस्य तदनुपपत्तेर"न्यथा प्रत्यात्मबुद्धिभेदकल्पनावैफल्योपनिपातात्। तस्मादर्थविशेष एवाऽयमित्युपपन्नमेवातो बहिरर्थव्यवस्थापनं तदभावे स्वयमप्यभावापत्तेः । 183 ।। संक्षेप में वह साधन दो प्रकार का है-विधि साधन और प्रतिषेध साधन विधि साधन भी दो प्रकार का है-धर्मी का और धर्मी विशेष का। धर्मी का उदाहरण है- “संति बहिरर्थाः साधनदूषणप्रयोगात्"अन्य मतावलंबी कहते हैं इससे भावधर्मी बहिरर्थ का साधन कैसे हुआ?जैनाचार्य कहते हैं कैसे नहीं होगा?परपक्ष कहते हैं-साध्य को भावधर्म होने पर उसी के समान असिद्धत्व की आपत्ति होती है, अभावधर्म मानने पर अभाव की ही सिद्धि होती है। अतः साधन विरूद्ध हो जाता है, भावाभाव उभय धर्म मानने पर व्यभिचारी हो जाता है।आचार्य कहते हैं-ऐसा नहीं हैं-भावं, अभाव और भावाभाव विकल्प से रहित ही धर्मी को माना जाने से विपक्षी कहते हैं-धर्मित्व के अभाव में साधन दूषण प्रयोग हेतु बहिरर्थ के सदभाव के लिए ही कैसे है?अभाव के लिये क्यों नहीं है? आचार्य कहते हैं-यह कहना ठीक नहीं है-भाव के प्रति ही उसके अविनाभाव का नियम होने से।"शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्ः" यहां भी शब्दधर्मी में अनित्यत्व धर्म को सिद्ध करने में कृतकत्व हेतु भी ' "असिद्धो भावधर्मत्वे व्यभिचार्युभयाश्रिताः ।विरुद्धो धर्मो भावस्य सा सत्ता साध्यते कथं" इति कारिका मनसि धृत्वा पर प्राहः । 'भाव, अभाव। भावाभावश्च। धर्मित्वाभावे। 5 अन्यथा, सर्वफलानि पक्वानि धर्मीणि एकशाखाप्रभवत्वात् । * भाव प्रत्यविनाभावाभाव समर्थयते परः ! उच्चारणं " प्रयोगस्य बहिरर्थविशेषत्व शब्दरूपत्वात्प्रतिपत्तव्यं । ५ साधन दुषणप्रयोग: बहिरर्थविशेष इत्यारोपितरूपत्वात ' प्रतिपादकबोधात्। " प्रकृतार्थप्रतिपत्त्यनुपपत्तेः। 58
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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