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________________ पावकजन्मन एवं धूमकार्यत्वेन तल्लिंगत्वापत्तेः ।न चैवं धूमादिभावेन तत्संभवेन व्यभिचारात्, रसादेरपि तत्कारणस्य प्रतिपत्तेरेव रूपादेरपि प्रतिपत्तिस्तस्य तज्जननधर्मतया ततोऽनुमानात्ततः कार्यतयैव तत्र तस्यैव लिंगत्वमिति चेत्ततः कार्यतयैव तत्र तस्यैव लिंगत्वमिति चेन्न, धूमशिंशपादेरप्यग्निवृक्षादि कार्यस्वभावतया प्रतिपत्तेरेवाग्निवृक्षादिप्रतिपत्तत्वापत्त्या लिंगव्यवहारस्यैवा भावोपनिपातात्। रसादिकारणात्तर्हि रूपादेरवगम इति चेन्न, . कारणस्य लिंगत्वानभ्युपगमात् । स्वाभावलिंगमेव तत्तत्र साध्यस्य रूपादेस्तन्मात्रेणैव भावात, स्वसत्तामात्रानुबंधिसाध्यविषयस्य लिंगस्य स्वभावलिंगत्वोपगमादिति चेत्, न। तत एव धूमादेरपि तल्लिंगत्वप्रसंगेन कार्यलिगंस्याभावानुषंगान्न रसादेः कार्यस्वभावयो रंतर्भावो नाऽप्यनुपलंभे विधिसाधनत्वादिति कार्यादिभेदेनात्रैविध्यं लिगंस्य । 180 || बौद्ध पुनः कहते हैं-अविनाभाव को साधन का लक्षण होने पर भी स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि के भेद से हेतु तीन प्रकार का ही है, अविनाभाव का उसी में नियम होने से यह कहना भी ठीक नहीं है।रसादि के रूपादि में अतत्स्वभाव होने पर भी गमकत्व की प्रतीति होने से रसादि स्वभाव वालेभी नहीं हैं भेद से प्रतिपत्ति होने से रसादि रूपादि के कार्य भी नहीं हैं, समसमय वाले होने से।बाद के रूप लक्षण का कारण पूर्वरूपलक्षण कार्य के होने से परंपरा से कार्यत्व है, यह भी नहीं कह सकते, इस प्रकार अग्नि से उत्पन्न भस्म को भी उनका कार्य धूआं होने से लिंगत्व का प्रसंग होने से भस्म से धूमादि की उत्पत्ति नहीं होने से भस्म धूमादि का लिंग नहीं है, अतः व्यभिचार है। पूर्वरूपादि से रसादि की प्रतिपत्ति से ही रूपादि की प्रतिपत्ति होती है, रूपादि को रसादि के उत्पन्न करने का धर्मवाला होने से अतः अनुमान से कार्यरूप से वहां उसी को हेतुपना है, ऐसा नहीं कह सकते, धूआं और शिंशपा आदि को भी अग्नि और वृक्षादि के कार्य स्वाभाव रूप से प्रतिपत्ति होने से अग्नि वृक्षादि की प्रतिपत्ति का प्रसंग होने से हेतु के व्यवहार का ही अभाव होने का प्रसंग होने से रसादि कारण से तब रूपादि का ज्ञान होता है यह नहीं कह सकते, कारण को हेतुपना नहीं माना जाने से ।स्वभावलिंग ही है रसादि रूपादि का ।पूर्वरूप क्षण को उत्तररूपलक्षण का जनक होने का स्वभाव होने से, इस स्वभाव लिंग से रूपादि साध्य के सिद्ध होने से अपनी सत्ता मात्र से संबंधित साध्य विषय के लिंग को स्वभावलिंगत्व माना जाने से।यह कहना भी ठीक नहीं है, उसी से धूमादि को भी अग्नि आदि के लिंगत्व का प्रसंग होने से, कार्यलिंग के अभाव का प्रसंग होने से।रसादि के कार्य और स्वभाव में अन्तर्भाव नहीं होता, अनुपलंभ में भी अन्तर्भाव नहीं होता, उपलंभ का साधन होने से।अतः कार्य स्वभाव और अनुपलब्धि के भेद से लिंग तीन प्रकार का नहीं है। 18011 'भस्मादेरिति भावः । २ इत्यत्र तृतीया हेत्वर्थे नतु सहार्थे । ३ अनुभूयमानात्। 4 पूर्वरूपादेः। 5 अनुभूयमानरसलक्षणसमानकालीनस्य। पूर्वरूपक्षण उत्तररूपक्षणजनकः पूर्वरूपक्षणत्वात् संप्रतिपन्नवत्। ' अंतर्भावः।
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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