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________________ -भावस्यावगमादिति चेत्, ननु तस्याभावो नाम भूतलस्य कैवल्यमेव नापरोऽप्रतिवेदनात्तत्र च तज्ज्ञानं प्रत्यक्षमेव । न तत्कैवल्यमात्रस्यज्ञान -मभावज्ञानमपि तु घटो नास्त्यत्रेत्या' कारमिति चेन्न, तस्याप्यनु' स्मर्यमाणघटा -विशिष्टतयोपलम्यमानतत्कैवल्यपरामर्शिनः प्रत्यभिज्ञानत्वेन तदंतरत्वानुपपत्तेः, घटोऽनुपलब्धेर्गगनकुसुमवदित्याकारत्वेऽपि तस्यानुमान एवांतर्भावादिति न प्रमाणांतरत्वमभावस्यापि । 176 ।। नाऽस्त्यत्र भाट्ट कहते हैं - तब अभाव प्रमाणान्तर है, प्रत्यक्षादि में उसका अन्तर्भाव नहीं होने से, यह कहना भी ठीक नहीं है । अभाव को प्रमाण मानते हो तो वह ज्ञान है या अज्ञान ? यदि वह अज्ञान है तब तो प्रमाण हो ही नहीं सकेगा । यदि यह कहो कि वह ज्ञान ही है, भूतल में भूतल के ज्ञान से ही घटाभाव का ज्ञान होने से | जैनाचार्य कहते हैं घट का अभाव तो केवल भूतल का होना ही है, अन्य नहीं, अन्य का प्रतिवेदन नहीं होने से । केवल भूतल के होने से ही घटाभाव का ज्ञान तो प्रत्यक्ष ही है । पुनः विपक्षी कहते हैं कि भूतल कैवल्य का ही ज्ञान नहीं होता अपितु घटाभाव का भी ज्ञान होता है "यहाँ घड़ा नहीं है" इस प्रकार का ज्ञान होता है यह कहना ठीक नहीं है । केवल भूतल को ग्रहण करने तथा घट से अविशिष्ट भूतल के स्मरण करने से प्रत्यभिज्ञान होने से अन्य प्रमाण की उपपत्ति नहीं होने से।"यहाँ घट नहीं है" आकाश कुसुम के समान अनुपलब्ध होने से इस प्रकार का ज्ञान होने पर भी उसका अनुमान में अन्तर्भाव हो जाने से अभाव को अन्य प्रमाण नहीं कहा जा सकता । 176 ।। किं लक्षणं तत्तर्हि साधनं यतोऽनुमानमिति चेत्, पक्षधर्मत्वं सपक्ष एव सत्त्वं विपक्षे वाऽसत्त्वमेवेति त्रिलक्षणमिति केचित् । तदसत् । एवं सत्युदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयादित्यस्य पक्षधर्मत्वाभावेनागमकत्वोपपत्तेस्तदभावश्च शकटे धर्मिण्युदेष्यत्वे साध्ये कृत्तिकोदस्य हेतोरभावात् । नायं दोषः, कालस्य धर्मित्वात्तत्र च तद्भावात्, तथा च प्रयोगो मुहूर्त्तपरिमाणः कालः शकटोदयवान् भवति कृत्तिकोदयत्वात् प्रवृत्ततत्कालवदिति चेन्न, 'एवमप्ययस्कारकुटीररधूमेन पर्वतपावकस्यानुमानापत्तेस्तदुभयगर्भस्य विस्तारिणः पृथिवीतलस्य धर्मित्वेन हेतोः पक्षधर्मत्वोपपत्तेः । नायं दोषस्तस्य तदविनाभावनियमाभावादिति चेत्, न तर्हि कालादिधर्मिकल्पनयाऽन्यत्रापि पक्षाधर्मत्वोपपादनेन . किंचित्सतोऽपि तस्य ' विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि । ± जैनो वदति । 3 4 5 6 बौद्धाः । मुर्हपरिमाणकाले धर्मिण्यपि । तदुभयगर्भ विस्तारि भूतलं पर्वताग्निमत् अयस्कारकुटीरधूमवत्वादिति । ' उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयादित्यत्राऽपि । 7 घटाभावस्य भूतलकैवल्ये सति । "गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनं । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेक्षानपेक्षया" । उपलभ्यमानभूतलकैवल्यं पश्चात्स्मर्यमाणघटाविशिष्टतया परिवृत्य जानीत इत्यर्थः । 8 53
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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