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________________ से।इसलिए प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न इस अन्य विकल्प को प्रमाण मानना चाहिये, इस प्रकार तर्क की भी प्रमाणता सिद्ध होती है।तर्क को प्रमाण नहीं मानने पर हेतु और साध्य के अविनाभाव नियम का ज्ञान नहीं होने का प्रसंग होगा।अतः स्मृति आदि को औपचारिक अनुमान की प्रमाणता ठीक ही है। 171 ।। एवं मुख्यस्यापि' किं तदिति चेत्, साधनात्साध्ये विज्ञानमेव ।साधनं साध्याविनाभावनियमलक्षणं तस्मान्निश्चयपथप्राप्तात्साध्यस्य साधयितुं शक्यस्याप्रसिद्धस्य' यद्विज्ञानं तदनुमानं । 172 || इसी प्रकार मुख्य अनुमान को भी प्रमाणता है। वह क्या हैं?यदि यह कहते हो तो साधन से साध्य का ज्ञान ही अनुमान प्रमाण है।साध्य के साथ अविनाभाव लक्षण वाला साधन है निश्चय मार्ग को प्राप्त उस साधन से अबाधित और असिद्ध साध्य को सिद्ध करने के लिए जो ज्ञान है, वह अनुमान हैं। 172।। किं तेन?प्रत्यक्षत एव पृथिव्यादितत्त्वस्य प्रतिपत्तेरिति चेन्न, ततोऽप्यनिश्चितप्रामाण्यात्तदनुपपत्तेः ।न च प्रतीतिमात्रात्तन्निश्चयो मिथ्याप्रतिभासेष्वपि तद्भावात्। अविसंवादात्तन्निश्चय स्तस्याभ्यस्तविषयेवेदनेषु प्रामाण्यव्याप्ततया प्रतिपत्तेरिति चेत्, आगतमनुमानं, निश्चितव्याप्तिकादर्थादर्था तरप्राप्तेरेवानुमानत्वात्। अनुमानमभ्यनुज्ञायत एव परप्रसिद्ध्येति चेत्, कुतो न स्वप्रसिद्ध्या?वस्तुतस्तस्याप्रामाण्यादिति चेत्, न तर्हि ततः प्रत्यक्षप्रामाण्यनियमो ऽप्रमाणात्तदनुपपत्तेः। अन्यथा पृथिव्यादेरपि तत एव प्रतिपत्त्या प्रत्यक्षप्रामाण्यकल्पनस्यापि वैफल्योपनिपातात् ।।73 || चार्वाक कहते हैं-अनुमान की क्या आवश्यकता है? प्रत्यक्ष से ही पृथ्वी आदि तत्व की प्रतिपत्ति होने से आचार्य कहते है, यह कहना समीचीन नहीं है, अनिश्चित प्रमाण होने से प्रत्यक्ष से भी उसकी प्रतिपत्ति नहीं होने से प्रतीति मात्र से प्रमाणता का निश्चय नहीं होता, मिथ्या प्रतिभास में भी प्रतीति होने से।यदि यह कहो की अविसंवाद से प्रमाणता का निश्चय होता है उसका अभ्यस्त विषय के जानने में प्रमाणता की व्याप्तता रूप से प्रतिपत्ति होने से तो अनुमान ही आ गया ।निश्चित व्याप्ति वाले विषय से विषयान्तर की प्राप्ति को ही अनुमान होने से।पर प्रसिद्धि से अनुमान माना ही जाता है यदि यह कहते हो तो स्व प्रसिद्धि से क्यों नहीं मानते?वास्तविक रूप से उसको अप्रमाण होने से यदि यह कहते हो तो उससे प्रत्यक्ष प्रमाण का निर्णय नहीं हो सकता, अप्रमाण से प्रमाणता की उपपत्ति नहीं होने से अन्यथा पृथ्वी आदि की भी उसी से प्रतिपत्ति होने से प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व की कल्पना को व्यर्थता का प्रसंग आयेगा। 173|| 'प्रामाण्यमिति शेष। ' अबाधितस्येति भावः । प्रतिवादिनं प्रतिअसिद्धस्य। * चार्वाको वदति। कुत इति शेषः । 50
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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