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________________ . फिर कैसे असत् केशादि को आकारादि के आरोप के समान विषयत्व भी है यदि यह कहते हो तो कथंचित् यह मान्य हो सकता है, यदि वह अपनी शक्ति से विषय हो तो।किंतु ऐसा नहीं है संवेदन की समर्थता से ही उसके विषयत्व होने से |उस प्रकार की उसके संवेदन की समर्थता उसके अन्तरंग अदृष्ट विशेष से तथा बाह्य विष के आस्वादन तथा कामलादि रोग से होती है, यह जानना और मानना चाहिये।अन्यथा कहीं किसी के अज्ञान की उत्पत्ति नहीं होने से उसको दूर करने वाले शास्त्र की विफलता का प्रसंग आने से असत् अर्थ के प्रतिवेदन से भिन्न सतख्याति, असत्ख्याति, प्रसिद्धार्थख्याति, विपरीतार्थख्याति, स्मृतिप्रमोष आदि किसी अज्ञान के उत्पन्न नहीं होने से ।अतः अपनी शक्ति से ही विषय का नियम सिद्ध होता है संवेदन के वैसा होने से असत् विषय के नियम के समान। सांख्य कहते हैं-असत् का संवेदन किसी के नहीं होता, केशादि का भी दूसरे देश आदि में सत् का ही कामलि आदि के द्वारा प्रति वेदन होता है।यह कहना ठीक नहीं है।उस ज्ञान के यथार्थ स्थित केशादि का विषयत्व मानने पर विभ्रम का अभाव हो जायगा।दूसरे देश आदि से ग्रहण के कारण विभ्रमत्व है, यह कहना भी उचित नहीं है, दूसरे देश आदि के वहां नहीं होने से। __असतदेशादि के ग्रहण करने पर केशादि के ही असत का ग्रहण क्यों नहीं हो जायगा, जिससे वह प्रतिपत्ति असत्ख्याति नहीं होगी ।अर्थ को ही विषय करने वाली वह प्रतिपत्ति है, उस अर्थ के अलौकिक होने से संसार को विभ्रम का अनुभव होता है, जो ऐसा कहते हैं उनके यहां अर्थ का अलौकिकत्व क्या है?समान देशकालवाले भी अन्य पुरूषों के द्वारा केशादि के दर्शन का निमित्त नहीं होने से केशादि विषय का अदृश्यत्व है यदि यह कहते हो तो वह निमित्त क्या है?जिसके अभाव से केशादि का अदृश्यत्व है?काचादि (नेत्र रोग विशेष) कारण दोष यदि यह कहो तो वस्तु के सद्विषय के लिये यह दोष व्यर्थ ही है।चक्षु को भी सत् वस्तु के ही वेदन का हेतु होने में समानता होने से यह दोष रहित भी नहीं है उसकी चिकित्सा को व्यर्थ होने का प्रसंग होने से।।52 ।। अलौकिकत्वं लोके तस्याविद्यमानत्वं, तदपि तत्प्रयोजनानिष्पादनादिति चेत्, असद्विषयैव तर्हि तत्प्रतीतिरिति स्पष्टमभिधातव्यं, कि मलौकिकार्थख्यातिरित्यभिधीयते। स्मृतिरेवेयं प्रागनुभूतस्यैव केशादेः काचादिमताऽपि प्रतिवेदनानासतोऽतिप्रसंगादित्यपि कस्यचिद्वचनमसमीचीनमेव, स्मृतित्वे पुरोवर्तितया तस्याप्रतिवेदनप्रसंगात् ।प्रमोषवशात्तथा तत्प्रतिवेदनमिति चेत्, कः पुनरयं प्रमोषो नाम? स्वरूपात्प्रच्युतिरिति चेन्न तर्हि स्मृतिरिति कथं तया केशादेः प्रतिवेदनं ।।53 ।। अलौकिकपना उसका लोक में विद्यमान न होना है उस केशादि से अर्थकिया लक्षण प्रयोजन के निष्पन्न नहीं होने से यदि यह कहते हो तो वह प्रतीति असद्विषयक ही है यह स्पष्ट कहना चाहिये ।फिर अलौकिक अर्थकी ख्याति यह क्यों कहते हो? यदि कोई कहे कि यह स्मृति ही है, पहले अनुभव किये हुए केशादि का ही काचादि दोष वाले से भी ' तेन केशादिना प्रयोजनस्यार्थकियालक्षणस्यानिःपादनात्। 2 किमर्थमित्यर्थः। पुंसौ 35
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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