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________________ तदभावेऽनुपपत्तेः । चेतनसंपर्काच्चेतनैव बुद्धिरिति चेत् । कुतो न दर्पणादिरप्येवं? चेतनस्य व्यापकत्वेन तत्संपर्कस्य तत्रापि भावात् । बुद्धावेव तद्विशेषस्य भावादिति चेत् । स कोऽपरोऽन्यत्र तत्स्वाभाव्यादिति चेतनात्मैव बुद्धिः न चैवं तत्र विषयाकारकल्पनमुपपन्नं मूर्त्तत्वाभावात् मूर्त्तेषु एव दर्पणादिषु मूर्त्तमुखाद्याकारस्योपलंभादिति न 'तदाकारस्य' व्यवसायत्वेन प्रत्यक्षत्वकल्पनमुपपत्तिमत् । कुतो वा बुद्धेरन्यस्य चेतनस्य भावे तत एव न विषयप्रतिपत्तिर्यतो बुद्धेस्त दर्थान्तरस्य कल्पनं। बुद्धिकरणकादेव ततस्तत्प्रतिपत्तिकरणस्य तत्र तद्व्यापारस्यासंभवात्ततो बुद्ध्यध्यवसितं 'बुद्धिप्रतिसंक्रान्तमेव चेतनः प्रतिपद्यते ततो युक्तमेव तत्कल्पनं साफल्यादिति चेन्न ।' बुद्ध्यप्रतिपत्तौ तत्प्रतिसंक्रान्तमुख प्रतिपत्तेरप्रतिपत्तेः । तत्प्रतिपत्तिश्च यदि बुद्ध्यन्तरप्रतिसंक्रमद्वारेण, भवत्यनवस्थानं, तदन्तरस्यापि तदपरतत्प्रतिसंक्रमद्वारेणैव प्रतिपत्तेः । अतद्वारायां तु प्रतिपत्तौ विषयप्रतिपत्तेरपि बुद्धिप्रतिसंक्रमनिरपेक्षाया एवोपपत्तेः कथं न व्यर्थैव बुद्धिपरि कल्पना भवेत् । बुद्धेर्विषयप्रतिपत्तिवत् स्वप्रतिपत्तवपि स्वयमेव करणत्वादुपपन्नं तत्प्रतिपत्तेस्तदन्तरप्रतिसंक्रमनिरपेक्षणं । न चैवं विषयप्रतिपत्तेर्विषयस्य ग्राह्यतया कर्मत्वेन स्वप्रतिपतौ करणत्वानुपपत्तेरिति चेत्, कथमिदानीं बुद्धेरपि तत्प्रतिपत्तौ करणस्यकर्मत्वं यतस्तद्ग्राह्यता भवेत्, कर्मणः करणत्ववत् करणस्यापि कर्मत्वानुपपत्तेः बुद्धा भयधर्मोपपत्तौ विषयेऽपि स्यादविशेषात् । विषयस्य स्वप्रतिपत्तिकरणत्वे सर्वोपि विषयः सर्वस्य प्रतिपन्न एव भवेत्तत्प्रतिपत्तिकरण भावस्य सर्वत्र तत्र भावादिति चेन्न, बुद्धावप्येवं प्रसंगात् । ।48 । । इन्द्रिय व्यापार को प्रत्यक्ष न मानो किंतु विषयाकार परिणति विशेषात्मक बुद्धि का व्यापार रूप व्यवसाय ही प्रत्यक्ष है । "विषय के प्रति अध्यवसाय ही प्रत्यक्ष है" ऐसा वचन होने से। "दृष्ट" यह प्रत्यक्ष के लिये कहा गया है, ऐसा नहीं कह सकते । बुद्धि के विषयाकार परिणाम होने पर दर्पणादि के समान ही उसकी प्रमाणता होने से मूर्तता के कारण उसके अचेतनत्व का प्रसंग हो जायगा । यदि यह कहो कि बुद्धि अचेतन ही है अनित्य होने से कलशादि के समान तो दर्पण आदि के समान ही बुद्धि की प्रमाणता कैसे सिद्ध होगी, जिससे उसके व्यापार विशेष को प्रत्यक्षत्व हो, प्रमाणता के बिना प्रमाण विशेष नहीं होने से चेतन के संसर्ग से बुद्धि चेतन ही है ऐसा कहते हो तो दर्पण आदि भी चेतन के संपर्क से चेतन क्यों नहीं हो जायेगे ? चेतन के व्यापक होने से उसका संपर्क दर्पण में भी होने से बुद्धि में ही यह विशेषता होती है यदि यह कहते हो तो वह उसके स्वभाव के अतिरिक्त अन्य कौन है? अतः बुद्धि चेतनात्मा ही है । इस प्रकार बुद्धि में विषयाकार की कल्पना भी नहीं उत्पन्न होती, बुद्धि के मूर्त नहीं होने के कारण, मूर्त दर्पण आदि में ही मूर्त मुखादि आकार की प्राप्ति होने से । अतः तदाकार को व्यवसाय होने के कारण प्रत्यक्षत्व की कल्पना नहीं हो सकती । बुद्धि से भिन्न चेतन के होने पर सांख्यो वक्ति । बुद्धिव्यापारस्य । बुद्धिप्रतिबिंबितमेव विषयं । जानाति । 5 प्रतीता अप्रतीता वेति विकल्पद्वयं कल्पयन्नाह । कर्मत्वकरणत्वे । 1 2 4 30
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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