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________________ वेदनार्थत्वात् । तस्य च ततः प्रागेवोत्पत्तेः । अर्थान्तरमेव ततः सुखादिरतः प्रागपि तस्य भाव इति चेत्, स यद्यनुभवरहितस्यैव सकलतत्पूर्वसमयेऽपि भाव,इति न 'चन्दनदहनादेस्तस्योत्पत्तिः शक्यावक्तृप्तिः । अनुभवसहितस्यैवेति चेन्न तर्हि तस्मादिन्द्रियसंनिकृष्टादुत्पत्तिस्तद्वेदनस्य समसमयभावित्वात्। अनुभवविरुद्धं च सुखादेस्तद्वेदनादर्थान्तरत्वं स्वसंवेदनरूपस्यैव तस्यानुभवात। कथं तर्हि तवेदनस्य प्रामाण्यमात्मवेदनमात्रस्य तदनभ्युपगमात् । अर्थात्मवेदनं न्यायं प्राहु" रित्युक्तत्वादिति चेन्न। अनुग्रहपीडादिरूपेण तस्य तद्वेदनात्कथंचिदर्थान्तरस्यापि भावा' दैकान्तिकस्यैव ततस्तद्भेदस्य तथा तदनुभवाभावेन प्रत्याख्यानादित्युपपन्नमव्यापकत्वं संनिकर्षस्य। तदभावे घटादौ सुखादौ च प्रत्यक्षस्योक्तयोपपत्त्या व्यवस्थापनात् । यदि च संनिकर्षस्य प्रत्यक्षत्वं तर्हि चक्षुषा रूपवद्रसादेरपि ग्रहणप्रसंगस्तस्य तत्रैवेत्ररत्रापि संयुक्तसमवायेन संनिकर्षात्, तद्विशेषस्याभावात् ।नो चेत्तस्यैव तर्हि प्रत्यक्षत्वं, सति तस्मिन्विषयसंवित्तेर्नियमात् ।न संनिकर्षस्य विपर्ययादित्यनुपपन्नं तल्लक्षणत्वं प्रत्यक्षस्य ।।44 ।। और यदि सुखादि के वेदन से सुखादि अभिन्न हैं तो उसका मन से सन्निकर्ष नहीं होगा, वेदन से पूर्व सुखादि का ही अभाव होने से ।वेदन के समय सुखादि के होने पर भी उसका सन्निकर्ष व्यर्थ ही होगा उसके वेदन को उत्पन्न करने वाला होने से, वेदन से पूर्व ही उसकी उत्पत्ति होने से।वेदन से सुखादि भिन्न ही हैं, अतः वेदन से पूर्व भी वह रहता है यदि यह कहते हो तो यदि अनुभव रहित के भी संपूर्णपूर्व समय में भी वह रहता है तो फिर चंदन से सुख की और अग्नि से दुःख की उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती ।यदि अनुभव सहित को ही पहले से सुखादि होता है।तो फिर इन्द्रिय सन्निकर्ष से उसकी उत्पत्ति नहीं होगी सुखादि और सुखादि के वेदन को समसमय वाला होने से।सुखादि का सुखादि के वेदन से भिन्न होना अनुभवविरुद्ध भी है, सुखादि को स्वसंवेदन रूप ही अनुभव किया जाने से।अन्यमत वाले कहते हैं फिर उस ज्ञान को प्रमाण कैसे माना जा सकता है? क्योंकि जैनों के द्वारा केवल स्व को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण नहीं माना गया है। उनके द्वारा "अर्थात्मवेदनं न्यायप्राहः" ऐसा कहा गया है।आचार्य कहते हैं-यह कहना भी ठीक नहीं है।अनुग्रह, पीड़ा आदि के रूप में सुखादि को उसके वेदन से कथंचित् भिन्न भी माना गया है, एकांत रूप से ही वेदन से सुखादि की भिन्नता का इस प्रकार के अनुभव का अभाव होने से निराकरण किया गया है।अतः सन्निकर्ष की अव्यापकता सिद्ध हुई।सन्निकर्ष के अभाव में घटाादि में तथा सुखादि में भी प्रत्यक्ष की ऊपर कहे अनुसार व्यवस्थापना होने से।यदि सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष मानते हो तो चक्षु से रूप के समान रसादि के भी ग्रहण का प्रसंग आयेगा ।चक्षु का रूप के समान रसादि में भी 'उत्पादकत्वात्। 'द्वंद्वसमासः कार्यः, चंदनात्सुखस्य दहनात्-अग्ने: दुःखस्य । शक्या कल्पना। 'अन्यः प्राह। 'जैनैः। 'प्रमाणमा 'एकांतेन नियमेन भवः तस्यैकांतिकस्य। 27
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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