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________________ अज्ञानी के विष दर्शन के समान अविसंवाद रहित होने के कारण अव्यवसायत्मक दर्शन प्रमाण नहीं है। प्रामाण्याभावे च दूरतः प्रत्यक्षत्वं, तस्य तद्विशेषत्वेन तदभावेऽनुपपत्तेरतः प्रत्यक्षाभासं तदिति प्रतिपत्तव्यं । 141 || प्रमाणता नहीं होने पर प्रत्यक्षता तो दूर ही है। दर्शन को प्रमाणता के अभाव में प्रमाण विशेष प्रत्यक्षत्व नहीं होने से वह प्रत्यक्षाभास है, यह जानना चाहिये। 141 || भवत तीन्द्रियार्थयोः सन्निकर्षः प्रत्यक्षं, वस्तुसाक्षात्करणस्य सर्वत्र तत एव भावादिति चेन्न। तस्याचेतनतया वस्तुप्रमितौ साधकतमत्वानुपपत्त्या प्रामाण्यस्यैव प्रतिक्षेपात्। न च तत एव साक्षात्करणं विषयस्य, तदभावेपि चक्षुषा पटस्य तत्प्रतिपत्तेः । अस्त्येव चक्षुषस्तद्विषयेण सन्निकर्षः, प्रत्यक्षस्य तत्रासत्वेऽप्यनु मानतस्तदवगमात्। तच्चेदमनुमानं, चक्षुः सन्निकृष्टमर्थं प्रकाशयति बाह्येन्द्रियत्वात्त्वगादिवत्। इतिचेत्, अत्र न तावद्गोलकमेव चक्षुस्त'द्विषयसन्निकर्षप्रतिज्ञानस्य प्रत्यक्षेण बाधनात्तेन तत्र तदभावस्यैव प्रतिपत्तेहेंतोश्च तद्बाधित कर्मनिर्देशानन्तरं प्रयुक्ततया कालात्ययापदिष्टतोपनिपातात् ।न तन्मात्रं चक्षुस्तद्रश्मिकलापस्य तत्त्वात्तस्य च रश्मिपरीतं चक्षुस्तैजसत्वात् प्रदीपवदित्यतस्तैजसत्वस्यापि तैजसं चक्षुः रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्तद्वदित्यनुमानतोऽवगमादिति चेत् ।किं पुनरत्र चक्षुर्यत्र तैजसत्वं साध्यं?न गोलकमेव तस्यरूपप्रकाशकत्वासिद्धेः, 'रश्मिपरिकल्पनावैफल्यप्रसंगात् ।रश्मिपरिकरितमिति चेन्न, तस्याद्याप्यसिद्धत्वेन रूपादीनामित्यादेखैतोराश्रयासिद्धदोषात् व्यभिचारी चायं हेतुः-स्वच्छजलेन तस्य तदन्तर्गतरूपमात्रप्रकाशत्वेऽपि तैजसत्वाभावान्न तैजसत्वाद्रश्मिवत्वं चक्षुषः |42 || तब इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष प्रत्यक्ष है, सब जगह वस्तु का साक्षात्कार सन्निकर्ष से ही होने से आचार्य कहते हैं यह कथन समीचीन नहीं है।इन्द्रिय के अचेतन होने के कारण वस्तु की प्रमिति में साधकतम नहीं होने से उसकी प्रमाणता का ही निराकरण किया जाने से ।इन्द्रिय सन्निकर्ष से ही विषय का साक्षात्कार नहीं होता, सन्निकर्ष के अभाव में भी चक्षु के द्वारा पट की प्रतिपत्ति होने से। यदि यह कहो कि चक्षु का उसके विषय के साथ सन्निकर्ष होता ही है, प्रत्यक्ष से सन्निकर्ष का ज्ञान न होने पर भी अनुमान से उसको जाना जाने से यह अनुमान भी है-चक्षु सनिकृष्टअर्थ को प्रकाशित करता है, बाह्येन्द्रिय होने के कारण स्पर्शन आदि इन्द्रियों के समान तो चक्षु क्या है? गोलक को तो चक्षु कह नहीं सकते उसका विषय के साथ सन्निकर्ष होता है इस प्रतिज्ञा की प्रत्यक्ष से बाधा होने से, प्रत्यक्ष से अर्थ के साथ उसके सन्निकर्ष के अभाव की ही प्रतिपत्ति होने से ।प्रत्यक्ष से सन्निकर्ष के अभाव का प्रतिपादन करने के बाद प्रयुक्त होने के कारण हेतु को ' तस्य विषयेण सह सन्निकर्षप्रतिज्ञानस्य, चक्षुः सन्निकृष्टमर्थ प्रकाशयतीति प्रतिज्ञाया इत्यर्थः । विषयकथनपश्चात्। 'अतोऽनुमानात्। ' तदसिद्धौ तैजसत्वासिद्धिः, तदसिद्धौ च रश्मिपरिकल्पितत्वस्यासिद्धिः । चक्षुः ।
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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