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________________ अन्यतस्तत्सिद्धिरिति' चेन्न | अनुमानस्य वैयर्थ्यप्रसंगात् । किं वा तदन्यत् ? प्रत्यक्षमिति चेन्न, तस्या प्यव्यतिरिक्तस्यान'भ्युपगमात् । व्यतिरिक्तमिति चेत्, कि मयं नियमः सति विषये तद्वेदनमवश्यमिति । तथा चेन्नार्थज्ञानवेदनवत्तद्वेदनेऽप्यन्यत्त द्वेदनं तत्राऽप्यन्यदित्यासंसारं तद्वेदनप्रबंधस्यैव प्रवृत्तेर्न विषयान्तरसंचारो वेदनस्य भवेदिति कथमनुमानम् । ।24 ।। अन्य ज्ञान से उसकी सिद्धि होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, अनुमान के व्यर्थ होने का प्रसंग होने से । अथवा वह अन्य ज्ञान क्या है, प्रत्यक्ष तो कह नहीं सकते, उसको भी द्वितीय ज्ञान से अभिन्न नहीं मानने से । यदि भिन्न मानते हो तो क्या यह नियम है कि विषय होने पर उसका वेदन अवश्य हो, यदि ऐसा मानते हो तो वह भी ठीक नहीं है प्रथम ज्ञान के वेदन के लिए अन्य ज्ञान और उसके वेदन के लिए अन्य ज्ञान इस प्रकार आजन्म ज्ञान के वेदन की ही परंपरा होने से किसी दूसरे विषय में उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। अतः अनुमान भी अन्य ज्ञान के द्वारा प्रथम ज्ञान को वेद्य कैसे सिद्ध कर सकता है । । 24 ।। धर्मिज्ञानतज्ज्ञानप्रबधंस्यानुपरमै हेतुदृष्टान्तयोरनुपपत्तेर्माभूदयं नियम इति चेन्न तर्हि धर्मिण्यपि वेदन नियम इति कथं तस्य तद्वेद्यत्वस्य हेतोर्वा सिद्धिरित्यसंभव एवानुमानस्य भवेत् । । 25 ।। धर्मी ज्ञान और उस ज्ञान के ज्ञान की परंपरा के समाप्त न होने तथा हेतु और दृष्टांत की उत्पत्ति नहीं होने से यह नियम न हो यदि ऐसा कहते हो तो धर्मी ज्ञान में भी वेदन का नियम नहीं होगा, फिर उसके वेद्यत्व हेतु की भी सिद्धि कैसे होगी? अतः उक्त अनुमान असंभव ही हो जायगा । | 25 || न विशिष्टमुपादीयते, अथ वेद्यत्वमर्थज्ञानस्य ' तदतत्कृतत्वेन अवशिष्टस्यैव तस्य हेतुत्वादिति चेत्, कथं तस्यानात्मविषयत्वे साध्ये हेतुत्वं ? तेनैव कलशादौ तस्य व्याप्तिदर्शनादिति चेत्, न, व्याप्तिज्ञाने आत्मविषयत्वेनापि "तस्य तद्दर्शनात्, न हि प्रादेशिकी व्याप्तिः । साध्यप्रतिपत्तेर्निमित्तं तत्पुत्रत्वादावपि तद्भावात् श्या॰मत्वादेस्ततोऽपि सिद्धिप्रसंगात् । अपि तु साकल्येन । तत्र यद् यद् तृतीयज्ञानात् । द्वितीयज्ञानाव्यतिरिक्तस्य । 3 कुतः स्वप्रतिपत्तिप्रसंगात् । प्रभवति न वेति शेषः । 5 प्रथमज्ञानलक्षणे । 1 2 4 " अनवस्थाने । 7 अन्यज्ञानकृतत्वेन । 8 साध्यस्य । ' प्रदेशे भवा प्रादेशिकी । 10 साध्यस्य । 13
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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