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दर्शन के तत्वों को स्पष्टरूप से समझाने का प्रयास किया गया है।ज्ञान-ज्ञेय तत्व, प्रमाणप्रमेय आदि का विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया है। ...
प्रमाण निर्णय
सर्वप्रथम निर्विघ्न ग्रन्थ की समाप्ति के लिए मंगलाचरण के रूप में श्री वर्द्धमान प्रभु को नमस्कार कर ग्रन्थ को प्रारंभ किया गया है।इस ग्रन्थ में प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय, परोक्षनिर्णय और आगमनिर्णय ये चार प्रकरण हैं।
प्रमाणनिर्णय में प्रमाण का स्वरूप निर्धारण करते हुए सम्यज्ञान को ही प्रमाण बताया है।इस प्रकरण में नैयायिक,मीमांसक, बौद्धप्रभृति दार्शनिकों की प्रमाणविषयक मान्यताओं की समीक्षा की गयी है और बताया है कि
सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है,इसके बिना अन्य किसी को प्रमाणत्व नहीं होने से।प्रमिति किया के प्रति जो साधकतम करण है,वही प्रमाण है,वह सम्यग्ज्ञान होने पर ही होता है,अचेतन इन्द्रियादि या मिथ्याज्ञान में नहीं होता।नैयायिक इन्द्रिय और अनुमानादि को भी प्रमिति किया के प्रति करण मानते हैं।वे कहते हैं-चक्षु इन्द्रिय से देखा जाता है, धूएं से अग्नि का अनुमान किया जाता है।अतः वे भी प्रमिति किया के प्रति करण हैं।
सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वाऽन्यथानुपपत्तेः। इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं य प्रमितिकियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम्। तच्च तस्य सम्यग्ज्ञानत्वे सत्येव भवति नाचेतनत्वे नाप्यसम्यग्ज्ञानत्वे। ननु च प्रमिति कियायामस्त्येवाचेतनस्यापीन्द्रियलिङ्गादेः करणत्वं चक्षुषा प्रमीयते,धूमादिना प्रमीयते इति। तथापि प्रमिति किया करणत्वस्य प्रसिद्धेरितिचेत्।
. आचार्य कहते हैं कि संशय विपर्यय और अनध्यवसाय का निवारण ही प्रमिति है, इनका निवारण होने पर ही अचेतन इन्द्रियआदि या अन्य कोई प्रमितिक्रिया का कारण हो सकता है। अचेतन इन्द्रिय आदि करण नहीं हो सकते, क्योंकि ये अव्युत्पत्त्यादि के विरोधी नहीं हैं। किसी विरोधी के द्वारा ही किसी का विनाश किया जा सकता है। जैसे प्रकाश अन्धकार का विरोधी है, अतः उससे अन्धकार नष्ट होता है। अचेतन इन्द्रिय आदि का अव्युव्यत्ति आदि से विरोध नहीं है, अतः उनके द्वारा उनका विनाश नहीं हो सकता। सम्यज्ञान से ही उनका विनाश हो सकता है, क्योंकि सम्यज्ञान निश्चयात्मक होता है। निश्चयात्मक का अव्युत्पत्त्यादि से विरोध प्रसिद्ध है। अतः सम्यज्ञान ही प्रमिति क्रिया का करण है अन्य नहीं।
ननु च प्रमितिर्नामाव्युत्पत्त्यादि व्यवच्छित्तिरेव। सत्यामेव तस्यां चेतनस्ये तस्य वा प्रमितत्वोपपत्तेः ।न च त्याचेतनम्य करणत्वमविरोधत्। विरोधिनोहि कुतचित्कस्यचित्व्यवच्छित्तिः प्रकाशादिवान्धकारस्य। न हृचेतनस्याप्यव्युत्पत्त्यादिना कश्चिदपि विरोधो यतस्ततोऽपि तद्व्यवच्छित्तिः परिकल्प्येत, सम्यग्ज्ञानात्तु तद्व्यवच्छित्तिरूपपन्नैव तस्य व्यवसायात्मकत्वात्। व्यवसायस्य चाव्युत्पत्त्यादिना विरोधप्रसिद्धेः।'
' प्रमाण निर्णय, वादिराज सूरि पृ० १