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________________ पे। कल्पना में स्याद्वाद से विरोध नहीं हैं, यदि यह करते हो तो अन्यत्र भी नहीं होना चाहिये, समानता होने से ।इस प्रकार उभयात्मकत्व भी कम की अपेक्षा कथन करने की इच्छा से धर्म और धर्मी के स्वयं के द्वारा ही होता है, अन्य पदार्थ के द्वारा नहीं अवक्तव्य भी धर्म और धर्मी के युगपत् कथन करने की इच्छा होने पर होता है, कम से अथवा दूसरे पद के कारण नहीं।अन्य पद की अपेक्षा से तो युगपत् भी सत् शब्द से शतृ शानच् प्रत्यय के समान वक्तव्य संभव होने से।इसी प्रकार आगे के भंगों में भी स्यात् के प्रयोग से अतिप्रसंग का निवारण समझना चाहिये ।विपक्षी कहते हैं-प्रवचन में मोक्ष के उपायभूत हेयोपादेय रूप सात तत्वों का प्रतिपादन तो ठीक है, उसके ज्ञान को मोक्ष का कारण रूप से पुरूषार्थ का हेतु होने से अनेकान्त और परिणाम के कथन की क्या आवश्यकता है?आचार्य कहते हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं है-हेयादितत्व की अनेकान्त और परिणाम से व्याप्तता दिखाने के लिए उसके कथन की आवश्यकता है।अनेकान्त और परिणाम से रहित हेयादितत्व की हेयोपादेयता संभव नहीं है वस्तुमात्र को अनेकान्त और परिणाम से व्याप्त निरूपित करने के कारण अनेकान्त न्याय से द्वेष रखने वालों के यहां अनेकान्त और परिणाम का अभाव होने से उससे अव्याप्त हेयादि तत्वों की भी उपपत्ति नहीं होने से उनके प्रवचनों को आगमाभासत्व कहा गया है।अतः युक्ति और शास्त्र से विरोध नहीं होने के कारण संपूर्ण पदार्थों के आधार अनेकान्त, परिणाम मोक्षमार्ग और उसके विषय लक्षण वाले सत्यचतुष्टय का यथार्थ कथन करने से, अन्यशासन का खंडन करने से भगवान जिनेन्द्र का शास्त्र ही प्रमाण है।।156 ।। श्रेयः श्रीजिनशासनं यदमलं बुद्धिर्मम स्तादमुं-- द्रीची नित्यमनुत्तराप्यदमुईची मे रुचिर्वर्द्धताम्।। आ संसारपरिक्षयादममईची भावना भावतो भूयान्मे भवबंधसंततिमिमामुच्छेत्तुमिच्छावतः ।। जो निर्मल कल्याणकारी जिनेन्द्र भगवान का शासन है मेरी बुद्धि उसे प्राप्त करे नित्य असाधारणता को प्राप्त मेरी रूचि भी बढ़ती रहे इस भव परंपरा को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली और भावना करने वाली मेरी भावना संसार के नष्ट होने तक वृद्धि को प्राप्त होती रहे। इति आगमनिर्णयः। श्रीमद्भगवद्वादिराजसूरिप्रणीते प्रमाणनिर्णयनाम्नि न्यायग्रंथे ||समाप्तं श्रीप्रमाणनिर्णयः ।। |शुभ भवतु।। __इस प्रकार भगवान वादिराजसूरि द्वारा प्रणीत प्रमाण निर्णय नामक ग्रंथ में आगम निर्णय वर्णन हुआ।। प्रमाण निर्णय ग्रंथ समाप्त हुआ। = शुभ हो : 'अमुद्रीची, अदोंऽचति प्राप्नोतीत्यमुद्रीची, यथा विष्वग्द्रीची ।अदमुईची, अमुमुईची इति प्रयोगावपि प्राप्त्यर्थेऽदःशब्दाद्भवतः एतैत्रिभिः प्रयोगैः "वादिराजमनुशाब्दिकलोक" इति स्तुतिः साक्षात्कृतार्था भवति। 109
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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