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________________ कथं पुनरेवमनित्यत्वे शब्दस्य तस्माद् व्यवहारोऽप्रतिपन्नसमया'त्तदनुपपत्तेः, प्रतिपन्नसमयस्यापि तस्य व्यवहारकालं यावदस्थितेरिति चेत् न, समयस्याऽप्य यमस्येत्यकरणात्। कथं त-दृश ईदृशस्य वाचक इति? 'ततस्तात्कालिकस्येव कालांतरभाविनोऽपि तादृशतया समयविषयत्वादुपपद्यत एव तस्य व्यवहारोपयोगित्वं। कर्त्तव्यश्चैवमंगीकारस्ताल्वादिव्यापारजन्मनो ध्वनिविशेषस्याप्यनित्यस्यैवमेव समयविषयतया वर्णाभिव्यक्तावुपयोगादित्यलमति विस्तरेण ||149 ।। शंकाकार कहते हैं शब्द के अनित्य होने पर उससे व्यवहार कैसे होता है, व्यवहार के समय तक शब्द के नहीं रहने पर उससे व्यवहार नहीं होने के कारण समयपर्यन्त रहने पर भी वह व्यवहार काल तक स्थित नहीं रहता, अतः उससे भी व्यवहार नहीं हो सकता, यह कहना उचित नहीं है, समय प्राप्त शब्द को भी यह शब्द इस अर्थ का वाचक है, यह संकेत नहीं होने से, फिर इस प्रकार के अर्थ का वाचक यह शब्द है, यह कैसे निश्चित किया जा सकता है।अत: तात्कालिक शब्द के समान कालांतर भावी शब्द को भी उसीके समान समय का विषय होने से उसका व्यवहारोपयोगित्व सिद्ध ही हो जाता है।यह स्वीकार करना चाहिये तालु आदि के व्यापार से उत्पन्न हुए अनित्य ध्वनिविशेष को इसी प्रकार समय का विषय होने से वर्णों की अभिव्यक्ति में उपयोगी होने से अधिक विस्तार की क्या आवश्यकता है? ||149|| __कथं पुनरनित्यत्वे शब्दस्य स एवायमकार उकारो वा यः प्रागश्रावीति प्रत्यभिज्ञानं, सत्येव नित्यत्वे तदुपपत्तेरिति चेत् न, तद्गतात्कुतश्चित्सामान्यविशेषादेव तदवक्लुप्तेः। तस्य' सदृशपरिणामरूपत्वात्तादृशोऽयमिति भवतु ततस्तदवक्तृप्तिः कथं पुनः स एवायमिति चेत् न, तथा ततोऽपि कलमकेशादौ तदुपलब्धेः । भ्रांतमेव तत्र तल्लूनपुनरुत्पन्नतया भेदिनि वस्तुत एकत्वस्याभावात् इति चेत् न, वर्णादिष्वपि तदविशेषात्, व्ययप्रादुर्भावयोस्तत्रापि प्रत्यक्षतोऽध्यवसायात्। तदनेन तद्वलात्तत्र व्यापित्ववर्णनमपि प्रत्याख्यातं घटादिष्वव्यापिष्वेव तत्रापि तद्भावात् व्यापिन: सामान्यस्य भावादेव घटादिष्वपि तद्भाव इति चेत् न, तादृशस्य प्रवेदनासंभवात्तत्संभवेऽपि वर्णेष्वपि तत एव तदिति कथं ततस्तदव्यक्तिषु तत्व प्रतिपत्तिः? कीदृशः पुनरसौ शब्दो यस्य 'शब्दात। 'अयं शब्दोऽस्यार्थस्य वाचक इति। 'ईदृशस्यार्थस्येदृशः शब्दो वाचक इति संकेतकरणं कथं । कारणात्। शब्दस्य। कुत्राचित्सामान्यात्। ' शब्दस्य। पूर्वोक्तन्यायेन नित्यत्त्वनिराकरणेन वा। १ अस्त्विति शेषः, तथाचानिष्ठं मीमांसकस्य कुतः वर्णेष्वेव व्यक्तिवत्तेन सामान्यानंगीकरणात्। एकत्व। 103
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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