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________________ भवतु नाम तदत्यंतातिशयदशायां तन्निदानपरिक्षयाबंधस्यानागतस्यानुत्पत्ते'रभावः प्रागवस्थस्य तु कथमिति चेत् न, तस्याप्याश्रवरूपस्नेहवशावस्थायिनस्तत्स्नेहापक्रमादेवाभावात्। तत्वाभिनिवेशरूपत्वान्मार्गस्य ततो मिथ्याभिनिवेशस्यैवापवर्त्तनं कथं रागादेरिति चेत् न, तस्यापि तद्विशेषत्वात्। कुतः पुनस्तस्य बंधनिबंधनत्वमिति चेत्। उच्यते ।रागादिर्जीवस्य शरीरादिव्यतिरिक्तपुदगलविशेषसंबंधहेतुस्तत्वान्मदिराद्यर्थिनस्तद्रागादिवत् ।यथावस्थितस्वपरज्ञान -.. स्वभावस्यात्मनः कुतो रागादिरपि दोषो यतस्तस्य तत्संबंधनिबंधनत्वमिति चेत् न. तस्यापि तादृशात्प्राच्यादेव सत्संबंधतो भावात्। तथाहि-तादृशस्यात्मनो रागादिस्तत्संबंधपूर्वकस्तत्वान्मदिरापीतस्य रागादिवत् सोऽपि तत्संबंधस्ततः प्राच्याद्रागादेरेवान चैवमनवस्थितिर्दोषो हेतुफलरूपतया रागादितत्संबंधप्रबंधस्यानादित्वात्।।138 ।। उक्त मार्ग के अत्यंत तारम्य की दशा में बंध के कारणों का नाश हो जाने से अनागत बंध की उत्पत्ति नहीं होने से अनागत बंध का अभाव हो जाय किंतु जो पहले से स्थित हैं, उनका अभाव कैसे हो?यह नहीं कह सकते।आस्रव रूप स्नेह के कारण प्रागवस्थ बंध का भी स्नेह के अभाव से ही अभाव हो जाने से।मार्ग के तत्वाभिनिवेश रूप होने से मिथ्याभिनिवेश का ही अभाव होगा, रागादि का कैसे अभाव होगा, यह कहना उचित नहीं है, रागादि को भी मिथ्याभिनिवेश का ही विशेष रूप होने से रागादि बंध के कारण कैसे हैं?यदि यह कहते हो तो बताते हैं-रागादि र्जीवस्य शरीरादि व्यतिरिक्त पुद्गल विशेष हेतु स्तत्वान्मदिरार्थिनस्तद्रागादिवत्" रागादि जीव के शरीरादि से भिन्न पुद्गल विशेष से संबंध के कारण हैं, रागादि होने से मदिरादि के इच्छुक के उसके रागादि के समान ।अपने स्वरूप में स्थित स्व पर ज्ञान स्वभाव वाले आत्मा के रागादि दोष कैसे हैं?जिससे उसको पुद्गल विशेष से संबंध का कारण माना जाय, यह कहना भी उचित नहीं है, उस रागादि का भी पहले रागादि कारण से ही संबंध होने से।तथाहि -(तादृशस्यात्मनो रागादिस्तत्संबंध पूर्वकस्तत्वान्मदिरापीतस्य रागादिवत् सोऽपि तत्संबंधस्ततः प्राच्याद्रागादेव) रागादि युक्त आत्मा के रागादि रागादि संबंध पूर्वक हैं रागादि होने के कारण मदिरा पीनेवाले के रागादि के समान मदिरा पीने वाले का भी मदिरादि से संबंध उससे पर्व रागादि के कारण ही होता है इस प्रकार अनवस्था भी नहीं है, हेतु और फल रूप से रागादि और उनके संबंध की परंपरा को अनादि होने से।।138 ।। तदुक्तम् जीवस्य संविदों रागादिहेतुर्मदिरादिवत् । तत्कर्मागंतुकं तस्य प्रबंधोऽनादिरिष्यते।।इति।। विषयस्तु मार्गस्य सप्तधा तत्वं "जीवाजीवाश्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्” इति सूत्रात् ।तद्विषयत्वं च तस्य तन्निर्णयादेव प्रवृत्तेः । [139 ।। कहा भी है 1 अत्र हेत्वर्थे पंचमी। 2 रागादिहेतुकात्। 'संवित्स्वभावस्य। 9A
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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