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________________ निकला। पूर्णरूप अपमानित-सा होकर वह वहाँ से चला था। 'यदि कुछ कहना था तो मुझ अकेले को बुलवाकर एकान्त में कह लेती तो पट्टमहादेवी का क्या बिगड़ जाता ? इस तरह सबके सामने अपमानित करने के ही इरादे से इसका आयोजन करने के लिए आयी होगी। मैंने कितने घाटों का पानी दिया है। इस तरह अपमानित होकर जीने से फाँसी लगाकर भरना अच्छा है। एम्बार को एक परिचारक कहा तो पट्टमहादेवी को गुस्सा आना चाहिए ? आचार्यजी को सब बातें सचिव द्वारा बता देंगे! बताने दें ? उनके बताने से पहले मैं स्वयं जाकर उनके कान भर आऊँगा। इसके लिए पट्टमहादेवी के बेलापुरी लौटने तक प्रसन्न मुख सबसे मिलते-जुलते रहने का स्वाँग करते हुए, कुछ बहाना करके यादवपुरी से निकलकर बीच रास्ते में ही आचार्य से मिल लूँगा । अपने मन की बात किसी से नहीं कहूँगा। इसके पहले लक्ष्मी को अपनी ओर कर लेना होगा। महाराज के लौटने के पहले ही उसे अपने बस में कर लेने के लिए, उससे कह लेना अच्छा हैं।' यो उसके मन में अण्टसष्ट और असम्बद्ध बातें एक के बाद एक ताँता बाँधकर उठने लगीं। .. पट्टमहादेवी नहीं समझी थीं कि यह तिरुवरंगदास इस तरह अष्टसष्ट सोचेगा 1 इसलिए उस दिन रानी लक्ष्मीदेवी को बड़ी आत्मीयता से पोस्सल राज्य का सारा इतिहास एवं घटित समस्त घटनाएँ विस्तार के साथ समझायीं और कहा, "हम सब एक ही वृक्ष के सहारे पनपने वाली बेल की तरह हैं। हम बिना तौर-तरीके से बढ़ने लगीं तो उस आश्रयदाता वृक्ष को ही निगल जाएँगी। ऐसा नहीं होना चाहिए। उसे बढ़ाने के लिए हमें यत्नशील रहना होगा। महामातृ श्री जैसी स्त्री का जन्म बिरला हो होता है। उनके व्यवहार की रीति ने हमें संयम से रहना सिखाया है, जीवन को सुधारा है । महासन्निधान की पत्नियाँ होने के नाते हमें उन महामातृश्री की सद्भावनाओं को बढ़ाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। आज की सभा में कुछ बोलने की इच्छा होते हुए भी तुमने अनावश्यक और अप्रस्तुत समझकर संयम से काम लिया। इससे मेरे मन में एक भावी आशा का भाव तुम्हारे बारे में उत्पन्न हुआ है। तुम भी राजमहल की परम्परा की रक्षा करती हुई, प्रजा के लिए एक आदर्श मार्ग दिखा सकोगी। दिवंगत बल्लाल महाराज की तरह महासन्निधान का जीवन न हो। तुम विश्वास करो या न करो, वास्तव में रानी पद्यलदेवी जी ने कह दिया था कि मेरे सिवा अन्य किसी से महासन्निधान विवाह न करें। हाल के विवाह को वे रोक देना ही चाहती थीं। इसके लिए असूया कारण नहीं, उनके अपने ही जीवन का कटु अनुभव है। ऐसा कटु अनुभव दूसरे को न हो. इस उदारता से इसलिए हम रानियों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। उस उत्तरदायित्व को समझकर आचरण करने की बुद्धिमत्ता तुममें है, ऐसा मैं समझती हूँ ।" यह सब समझाकर दूसरे दिन पट्टमहादेवी बेलापुरी के लिए प्रस्थान कर गर्यो । पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार 83 :
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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